अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
ज्याया॑न्निमि॒षतोसि॒ तिष्ठ॑तो॒ ज्याया॑न्त्समु॒द्राद॑सि काम मन्यो। तत॒स्त्वम॑सि॒ ज्याया॑न्वि॒श्वहा॑ म॒हांस्तस्मै॑ ते काम॒ नम॒ इत्कृ॑णोमि ॥
स्वर सहित पद पाठज्याया॑न् । नि॒ऽमि॒ष॒त: । अ॒सि॒ । तिष्ठ॑त: । ज्याया॑न् । स॒मु॒द्रात् । अ॒सि॒ । का॒म॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । तत॑: । त्वम् । अ॒सि॒ । ज्याया॑न् । वि॒श्वहा॑ । म॒हान् । तस्मै॑ । ते॒ । का॒म॒ । नम॑: । इत् । कृ॒णो॒मि॒ ॥२.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्यायान्निमिषतोसि तिष्ठतो ज्यायान्त्समुद्रादसि काम मन्यो। ततस्त्वमसि ज्यायान्विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्कृणोमि ॥
स्वर रहित पद पाठज्यायान् । निऽमिषत: । असि । तिष्ठत: । ज्यायान् । समुद्रात् । असि । काम । मन्यो इति । तत: । त्वम् । असि । ज्यायान् । विश्वहा । महान् । तस्मै । ते । काम । नम: । इत् । कृणोमि ॥२.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(काम) हे कामनायोग्य ! (मन्यो) हे पूजनीय [परमेश्वर !] तू (निमिषतः) पलक मारनेवाले [मनुष्य, पशु, पक्षी आदि] से और (तिष्ठतः) खड़े रहनेवाले [वृक्ष पर्वत आदि] से (ज्यायान्) अधिक बड़ा (असि) है और (समुद्रात्) समुद्र [आकाश वा जलनिधि] से (ज्यायान्) अधिक बड़ा (असि) है। (ततः) उससे (त्वम्) तू... १९॥२३॥
भावार्थ
वह जगदीश्वर मनुष्य, पर्वत, आकाश आदि की भी सीमा में नहीं आता है ॥२३॥
टिप्पणी
२३−(निमिषतः) मिष स्पर्धायाम्-शतृ। चक्षुर्मुद्रणशीलात्। मनुष्यपशुपक्षिसकाशात् (असि) (तिष्ठतः) स्थितिशीलात्। वृक्षपर्वतादिसकाशात् (समुद्रात्) अन्तरिक्षात्-निघ० १।३। जलनिधेर्वा (असि) (काम) (मन्यो) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। मन पूजायाम्, ज्ञाने गर्वे च-युच्, अनादेशो न। हे पूजनीय परमेश्वर। अन्यत् पूर्ववत् ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( काम ) = हे कामनायोग्य ( मन्यो ) = पूजनीय प्रभो ! ( निमिषतः ) = पलकें मारनेवाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि से और ( तिष्ठतः ) = स्थावर वृक्ष पर्वतादि से ( ज्यायान् ) = आप अधिक बड़े ( असि ) = हैं और ( समुद्रात् ) = आकाश व जलनिधि से ( ज्यायान् ) = अधिक बड़े ( असि ) = हैं । शेष ४५वें मन्त्र की नाईं ।
भावार्थ
भावार्थ = परमेश्वर ! आप चर-अचर संसार से और आकाश और जलनिधि से बहुत बड़े हैं। ऐसे आपको ही मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।
विषय
ज्यायान् प्रभु
पदार्थ
१. (यावती:) = जितने भी (भृङ्गा:) = भौरे, (जत्व:) = चमगादड़, (कुरूरव:) = चौलें हैं, (यावती:) = जितने भी (वघाः) = टिड्डी आदि जन्तु हैं, जितने भी (वृक्षसमे:) = वृक्षों पर सरकनेवाले कीट (बभूवुः) = हैं उन सबकी सम्मिलित शक्ति से भी आप महान् हैं। हे (काम) = कमनीय (मन्यो) = ज्ञानस्वरूप प्रभो! आप (निमिषत:) = आँखों को बन्द किये हुए-निमेषोन्मेष के व्यापारवाले जीवों से (ज्यायान्) = बड़े हो, (तिष्ठत:) = इन खड़े हुए वानस्पतिक जगत् से आप बड़े हो, (समुद्रात्) = इन समुद्रों से भी अथवा अन्तरिक्ष से भी आप (ज्यायान्) = बड़े हो। ३. (न वै) = निश्चय से न ही (वात: चन) = यह वायु भी (कामम् आप्नोति) = उस कमनीय प्रभु को व्याप्त कर पाता है, (न अग्निः) = न अग्नि उस प्रभु को महिमा को व्यापता है, (सूर्य:) = सूर्य भी नहीं व्यापता (उत) = और (न चन्द्रमा:) = न चन्द्रमा ही उस प्रभु की महिमा को व्याप सकता है। (तत:) = उन वायु, अग्नि, सूर्य व चन्द्रमा से हे (काम) = कमनीय प्रभो ! (त्वम्) = आप (ज्यायान्) = बड़े हो। (विश्वहा महान्) = सदा महनीय [पूजनीय] हो। (तस्मै ते) = उन आपके लिए (इत्) = निश्चय से (नमः कृणोमि) = नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ
प्रभु की महिमा को सारे 'भृग व कृमि-कीट-पतङ्ग' नहीं व्याप सकते। वे प्रभु चराचर जगत् व सम्पूर्ण अन्तरिक्ष से महान् हैं। वायु, अग्नि, वचन्द्र में ही प्रभु की महिमा समास नहीं हो जाती। प्रभु इन सबसे महान् हैं।
भाषार्थ
(मन्यो काम) हे मन्युरूप कमनीय परमेश्वर ! (निमिषतः) निमेषोन्मेष करने वाले प्राणियों से (तिष्ठतः) और स्थावरों से (ज्यायान् असि) तू वड़ा है, (समुद्रात् ज्यायान् असि) समुद्र से तू बड़ा है। (ततः) उन सब से (ज्यायान् विश्वहा असि) तू सदा बड़ा है, (महान्) तू सर्वतो महान् है, (तस्मै ते) उस तेरे प्रति (काम) हे कमनीय परमेश्वर! (नमः इत्) नमस्कार ही (कृणोमि) मैं करता हूं।
विषय
प्रजापति परमेश्वर और राजा और संकल्प का ‘काम’ पद द्वारा वर्णन।
भावार्थ
हे (काम) संकल्पमय कान्तिमय प्रभो ! हे (मन्यो) ज्ञानमय ! (निमिषतः) निमेष उन्मेष करने वाले असंख्य प्राणियों से भी तू (ज्यायान्) बहुत बड़ा है। अर्थात् जितनी इच्छाशक्ति का कौशल निमेष करने में मनुष्य आदि जन्तु का है उससे भी अधिक कौशल तेरा है। और (तिष्ठतोः ज्यायान्) समान-भाव से स्थिरता से खड़े रहने वाले वृक्ष पर्वतादि से भी स्थिरता के सामर्थ्य में तू (ज्यायान्) बहुत बड़ा है। (समुद्रात् ज्यायान् असि) जलों के वर्षाने वाले मेघ और धारण करने वाले महान् समुद्र से भी सामर्थ्य में तू (ज्यायान्) बहुत बड़ा है। (ततः त्वम्०) इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः॥ कामो देवता॥ १, ४, ६, ९, १०, १३, १९, २४ अनुष्टुभः। ५ अति जगती। ८ आर्चीपंक्तिः। ११, २०, २३ भुरिजः। १२ अनुष्टुप्। ७, १४, १५ १७, १८, २१, २२ अतिजगत्यः। १६ चतुष्पदा शक्वरीगर्भा पराजगती। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kama: Love and Determination
Meaning
O Kama, O Manyu, lord of love, desire and passion for creation, passionately loved and adored by all, you are greater than those that wink like the stars at night and greater than those that stand still. You are greater than the sea and space. Therefore you are greater and higher than all of them all times all ways. Hence O lord of love and passion for creation, I offer you salutations in homage.
Translation
O Kama (desire), O ardour, you are superior to the blinking, and to the stationary; you are superior to the ocean; you are superior to them, great in all respects; as such to you, O Kama, I bow in reverence.
Translation
This Kama which is a mental tension is stronger than that which lives and twinkles, stronger than that which stands steady, it is stronger than the ocean, it has the power of overpowering all and is great. Thus I accept the strength of Kama.
Translation
Stronger art Thou than aught that stands or twinkles stronger art Thou than ocean, O Beautiful, worshipful God! Stronger than these art Thou, and great for ever, O God, to Thee, to Thee I offer worship!
Footnote
Stands or twinkles: Inanimate and animate nature. All that stands without the power of moving away, as trees and plants, and mountains; and all creatures that open and shut their eyelids, as many beasts and birds.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३−(निमिषतः) मिष स्पर्धायाम्-शतृ। चक्षुर्मुद्रणशीलात्। मनुष्यपशुपक्षिसकाशात् (असि) (तिष्ठतः) स्थितिशीलात्। वृक्षपर्वतादिसकाशात् (समुद्रात्) अन्तरिक्षात्-निघ० १।३। जलनिधेर्वा (असि) (काम) (मन्यो) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। मन पूजायाम्, ज्ञाने गर्वे च-युच्, अनादेशो न। हे पूजनीय परमेश्वर। अन्यत् पूर्ववत् ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
জ্যায়ান্নিমিষতোঅসি তিষ্ঠতো জ্যায়ান্ত্সমুদ্রাদসি কাম মন্যো।
ততস্ত্বমসি জ্যায়ান্বিশ্বহা মহাঁস্তস্মৈ তে কাম নম ইৎকৃণোমি ।।৪৬।।
(অথর্ব ৯।২।২৩)
পদার্থঃ (কাম) হে কামনাযোগ্য (মন্যো) পূজনীয় ঈশ্বর! তুমি (নিমিষতঃ) পলক ফেলে এমন মানব, পশু প্রভৃতির চেয়ে এবং (তিষ্ঠতঃ) স্থাবর ব্রক্ষ পর্বতাদি থেকে (জ্যায়ান্অসি) অধিক বিশাল এবং (সমুদ্রাৎ) আকাশ ও জলনিধি থেকেও (জ্যায়ান্অসি) অধিক বিশাল। (ততঃ) সে সমস্ত কিছুর চেয়ে (ত্বম্) তুমি (জ্যায়ান্) অধিক বিশাল (বিশ্বহা) সবচেয়ে (মহান্অসি) বড় পূজনীয়। (তস্মৈ তে ইৎ) সেই তুমিই (কামঃ) কামনা করার যোগ্য; (নমঃ কৃণোমি) তোমাকে নমস্কার করছি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরমেশ্বর! তুমি চরাচর সংসার, আকাশ ও সমস্ত জলনিধি থেকেও বিশাল। সেই তোমাকে আমরা বারবার নমস্কার করছি ।।৪৬।।
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