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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कामः छन्दः - द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - काम सूक्त
    55

    अ॒ग्निर्यव॒ इन्द्रो॒ यवः॒ सोमो॒ यवः॑। य॑व॒यावा॑नो दे॒वा य॑वयन्त्वेनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । यव॑: । इन्द्र॑: । यव॑: । सोम॑: । यव॑: । य॒व॒ऽयावा॑न: । दे॒वा: । य॒व॒य॒न्तु॒ । ए॒न॒म् ॥२.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्यव इन्द्रो यवः सोमो यवः। यवयावानो देवा यवयन्त्वेनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । यव: । इन्द्र: । यव: । सोम: । यव: । यवऽयावान: । देवा: । यवयन्तु । एनम् ॥२.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वर (यवः) [अधर्म का] हटानेवाला, (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवाला जगदीश्वर (यवः) [दुष्कर्म] मिटानेवाला, (सोमः) सुख उत्पन्न करनेवाला ईश्वर (यवः) [सुख का] मिलानेवाला है। (यवयावानः) यवनों [धर्मनिन्दकों] के निन्दा करनेवाले (देवाः) विद्वान् लोग (एनम्) इस [परमात्मा] को (यवयन्तु) मिलें ॥१३॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग ईश्वरोक्त धर्म्मानुसार दुष्कर्मियों को दण्ड देकर परमेश्वर की आज्ञा में प्रवृत्त रहते हैं ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (यवः) यु मिश्रणामिश्रणयोः-अप्। अधर्मस्य पृथक्कर्ता (इन्द्रः) परमेश्वरः (यवः) दुष्कर्मनाशकः (सोमः) सुखोत्पादकः (यवः) सुखसंयोजकः (यवयावानः) कनिन् युवृषितक्षिराजि०। उ–० १।१५६। यव+यु निन्दने चुरादिः-कनिन्। यवानां यवनानां धर्मनिन्दकानां निन्दकः (देवाः) विद्वांसः (यवयन्तु) सांहितिको दीर्घः। मिश्रयन्तु। प्राप्नुवन्तु ॥

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    विषय

    'अनि, इन्द्र, सोम'-यव

    पदार्थ

    १. (अग्नि:) = वे अग्रणी प्रभु (यवः) = यव हैं-वे हमसे बुराइयों को पृथक् करनेवाले हैं। (इन्द्र: यवः) = वे शत्रविद्रावक प्रभु हमसे बुराइयों को दूर करते हैं। (सोमः यव:) = सोम [शान्त] प्रभु बुराइयों को हमसे दूर करनेवाले हैं। हम आगे बढ़ने की भावनावाले [अग्नि], जितेन्द्रिय [इन्द्र] व शान्त-विनीत [सोम] बनें। ऐसा बनकर ही हम सब बुराइयों को अपने से दूर कर पाएंगे। २. (देवा:) = माता, पिता, आचार्य व अतिथि आदि देव (यवयावान:) = [यवाः च यावान: च] बुराइयों को पृथक्क रनेवाले व शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले हैं [या गती]। (एनम्) = इस अपने उपासक को ये देव (यावयन्तु) = सब शत्रुओं से पृथक् करें।

    भावार्थ

    हम 'अग्नि, इन्द्र व सोम' इन नामों से प्रभु-स्मरण करते हुए आगे बढ़ें, जितेन्द्रिय बनें व शान्त वृत्तिवाले हों। इसप्रकार हम बुराइयों को अपने से पृथक् कर पाएंगे। माता-पिता, आचार्य व अतिथियों का सान्निध्य हमें शत्रुओं को दूर भगाने में सशक्त करे।

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    भाषार्थ

    (अग्निः) ज्ञानाग्नि (यवः) पृथक् करने वाला है, (इन्द्रः) जीवात्मा (यवः) पृथक् करने वाला है, (सोमः) वीर्य (यवः) पृथक् करने वाला है। (यवयावानः) इन यवों द्वारा पृथक् करने वाले (देवाः) देव (एनम्) इस अध्यात्म सपत्न को (यावयन्तु) पृथक् कर दें।

    टिप्पणी

    [अग्नि, इन्द्रः (देखो मन्त्र)। सोमः सोमन् (उणा० १।१४०) वीर्य= (semen)। ये तीनों यव हैं, सपत्नों का, व्यक्ति के साथ, अमिश्रण करने वाले हैं, व्यक्ति से अध्यात्म-सपत्नों को अलग करने वाले हैं (यव= यु मिश्रणामिश्रणयोः अदादि)। देवाः= मातृदेव, पितृदेव, आचार्य देव, अतिथि देव। ये देव, अग्नि आदि यवों द्वारा, अध्यात्म सपत्नों को पृथक् करें ऐसी प्रार्थना मन्त्र में हुई है। अथवा अग्निः= आग; इन्द्र= सूर्य या विद्युत्; सोम= चन्द्रमाः— ये तीनों यव हैं, पृथक् करने वाले हैं, अन्धकार रूपी सपत्न के। व्यक्ति के जीवन में काम, क्रोध आदि को अन्धकार रूप कह कर उन्हें दूर करने की प्रार्थना की गई है।]

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    विषय

    प्रजापति परमेश्वर और राजा और संकल्प का ‘काम’ पद द्वारा वर्णन।

    भावार्थ

    (अग्निः) मेरी ज्ञानाग्नि (यवः) अन्तःशत्रुओं को भगा देने से ‘यव’ कहाता है। (इन्द्रः) आत्मिक शक्ति सम्पन्न मेरी आत्मा भी इसी कारण से (यवः) ‘यव’ है (सोमः) वीर्यशक्ति भी (यवः) इसी प्रकार ‘यव’ है (यवयावानः*) भगा देने में समर्थ (देवाः) ये दिव्य साधन (एनम्) इस अन्तःशत्रु को (यवयन्तु) मुझ से पृथक करें।

    टिप्पणी

    *यवयावानः। योति पृथक् करोति दूरीकरोति इति यवः स इव यान्तीति यवयावानः। शत्रुनिराकरणसमर्धाः सन्तः शत्रुमभिलक्ष्य यात्राकारिणः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः॥ कामो देवता॥ १, ४, ६, ९, १०, १३, १९, २४ अनुष्टुभः। ५ अति जगती। ८ आर्चीपंक्तिः। ११, २०, २३ भुरिजः। १२ अनुष्टुप्। ७, १४, १५ १७, १८, २१, २२ अतिजगत्यः। १६ चतुष्पदा शक्वरीगर्भा पराजगती। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kama: Love and Determination

    Meaning

    Agni, leading light of knowledge, is a cleanser of the soul from rivals. Indra, strong determination blest by omnipotent Indra, is the destroyer of pollutions. Soma, peace and lustrous vitality of the spirit, is a protector of the soul from debilitation. Let the divine powers of the Spirit, which repel as well as protect, throw away this hate, enmity and rivalry.

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    Translation

    The adorable Lord is the warder off (yava); the resplendent Lord is the warder off; the blissfull Lord is the warder off. May the enlightened ones, warders of the warders, ward off this (enemy).

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    Translation

    Agni, the fire is great averting. force, Indra, the electricity is also an averting power, Soma, the air is a huge warding off power and let these mighty forces possessing. Averting power ward off this enemy of mine.

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    Translation

    Wise God is the Averter of sin. Glorious God is Annihilator of evil deeds. Blissful God is the Bestower ofjoy. May the learned, who dislike the detractors of religion, attain to God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (यवः) यु मिश्रणामिश्रणयोः-अप्। अधर्मस्य पृथक्कर्ता (इन्द्रः) परमेश्वरः (यवः) दुष्कर्मनाशकः (सोमः) सुखोत्पादकः (यवः) सुखसंयोजकः (यवयावानः) कनिन् युवृषितक्षिराजि०। उ–० १।१५६। यव+यु निन्दने चुरादिः-कनिन्। यवानां यवनानां धर्मनिन्दकानां निन्दकः (देवाः) विद्वांसः (यवयन्तु) सांहितिको दीर्घः। मिश्रयन्तु। प्राप्नुवन्तु ॥

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