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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कामः छन्दः - जगती सूक्तम् - काम सूक्त
    58

    याव॑ती॒र्दिशः॑ प्र॒दिशो॒ विषू॑ची॒र्याव॑ती॒राशा॑ अभि॒चक्ष॑णा दि॒वः। तत॒स्त्वम॑सि॒ ज्याया॑न्वि॒श्वहा॑ म॒हांस्तस्मै॑ ते काम॒ नम॒ इत्कृ॑णोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑ती: । दिश॑: । प्र॒ऽदिश॑: । विषू॑ची: । याव॑ती: । आशा॑: । अ॒भि॒ऽचक्ष॑णा: । दि॒व: । तत॑: । त्वम् । अ॒सि॒ । ज्याया॑न् । वि॒श्वहा॑ । म॒हान् । तस्मै॑ । ते॒ । का॒म॒ । नम॑: । इत् । कृ॒णो॒मि॒ ॥२.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावतीर्दिशः प्रदिशो विषूचीर्यावतीराशा अभिचक्षणा दिवः। ततस्त्वमसि ज्यायान्विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्कृणोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावती: । दिश: । प्रऽदिश: । विषूची: । यावती: । आशा: । अभिऽचक्षणा: । दिव: । तत: । त्वम् । असि । ज्यायान् । विश्वहा । महान् । तस्मै । ते । काम । नम: । इत् । कृणोमि ॥२.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यावतीः) जितनी बड़ी (विषूचीः) फैली हुई (दिशः) दिशाएँ और (प्रदिशः) मध्य दिशाएँ, और (यावतीः) जितनी बड़ी (आशाः) सब भूमी और (दिवः) आकाश के (अभिचक्षणाः) दृश्य हैं। (ततः) उस से (त्वम्) तू... म० १९॥२१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर सब दिशाओं और सब दृश्यों की सीमा से बाहिर है ॥२१॥

    टिप्पणी

    २१−(यावतीः) यत्प्रमाणाः (दिशः) पूर्वादयः (प्रदिशः) अन्तर्दिशाः (विषूचीः) अ० १।१९।१। सर्वत्रव्यापिकाः (आशाः) आ+अशू व्याप्तौ-अच्। दिशाः। तत्रत्या देशाः (अभिचक्षणाः) चक्षिङ् दर्शने-ल्यु। दृश्यानि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    'महान्' प्रभु

    पदार्थ

    १. (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक और पृथिवीलोक (वरिम्णा) = विस्तार से (यावती) = जितने बड़े हैं, (यावत्) = जितनी भी दूर तक (आपः सिष्यदः) = ये जल बह रहे हैं, (यावत्) = जितनी यह (अग्नि:) = अग्नि विस्तृत है, (यावती:) = जितनी दूर तक (विषूची:) = [वि सु अञ्च] चारों ओर फैलनेवाली (दिशः प्रदिश:) = ये दिशाएँ व उपदिशाएँ फैली हैं, (यावती:) = जितनी दूर तक (दिवः अभिचक्षणा:) = द्युलोक के प्रकाश को प्रकट करनेवाली (आशा:) = ये दिशाएँ हैं,२.हे (काम) = कमनीय प्रभो! (त्वम्) = आप (तत:) = उनसे (ज्यायान् असि) = अधिक बड़े हैं। (विश्वहा) = सदा (महान्) = महनीय व पूजनीय हैं, (तस्मै ते) = उन आपके लिए (इत्) = निश्चय से (नमः कृणोमि) नमस्कार करता हूँ।

    भावार्थ

    प्रभु की महिमा 'द्यावापृथिवी, जल, अग्नि, दिशा-प्रदिशाओं से महान् है। उस महान् प्रभु के लिए हम सदा प्रणाम करते हैं।

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    भाषार्थ

    (यावती) जितनी बड़ी (दिशाः) दिशाएं और (प्रदिशः) अवान्तर दिशाएं हैं, (यावतीः) जितनी बड़ी (आशा) सर्वत्र व्याप्त सुसम्बन्धी दिशाएं हैं, जोकि मानो (दिवः) द्युलोक का (अभिचक्षणाः) निरीक्षण कर रही हैं, (ततः) उन सब से (त्वम् असि ज्यायान् विश्वहा) तु सदा बड़ा है, (महान्) और महान् है, (तस्मै ते) उस तेरे प्रति (काम) हे कमनीय परमेश्वर ! (नमः इत्) नमस्कार ही (कृणोमि) मैं करता हूं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kama: Love and Determination

    Meaning

    As far as the vast directions and interdirections of the world extend, as far as the expansive bounds of space extend and observe the bounds of Heaven, thence you are greater and higher than all that, all times, all ways, the greatest indeed. Hence O Kama, lord of love and creative desire, loved and worshipped of all, I offer you obeisance in homage.

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    Translation

    As far as the quarters and the mid-quarters extend in all the directions, as far as the directions illuminating the sky (extend); you are, superior to them, great in all respects; as such to you, O Kama, I bow in reverence.

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    Translation

    This Kama is as vast as the quarters of sky and region that lie between them spread in all directions, it is as vast as the celestial tracts and views that heaven form, it has the power of overpowering all and is stronger than those and is great. Thus I accept this strength of Kama.

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    Translation

    Vast as the quarters of the sky and regions that lie between them spread in all directions, vast as are celestial tracts and views of heaven; stronger than these art Thou, and great for ever, O God; to Thee, to Thee I offer worship!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(यावतीः) यत्प्रमाणाः (दिशः) पूर्वादयः (प्रदिशः) अन्तर्दिशाः (विषूचीः) अ० १।१९।१। सर्वत्रव्यापिकाः (आशाः) आ+अशू व्याप्तौ-अच्। दिशाः। तत्रत्या देशाः (अभिचक्षणाः) चक्षिङ् दर्शने-ल्यु। दृश्यानि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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