अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
याव॑ती॒ द्यावा॑पृथि॒वी व॑रि॒म्णा याव॒दापः॑ सिष्य॒दुर्याव॑द॒ग्निः। तत॒स्त्वम॑सि॒ ज्याया॑न्वि॒श्वहा॑ म॒हांस्तस्मै॑ ते काम॒ नम॒ इत्कृ॑णोमि ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑ती॒ इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । व॒रि॒म्णा । याव॑त् । आप॑: । सि॒स्य॒दु: । याव॑त् । अ॒ग्नि: । तत॑: । त्वम् । अ॒सि॒ ।ज्याया॑न् । वि॒श्वहा॑ । म॒हान् । तस्मै॑ । ते॒ । का॒म॒ । नम॑: । इत् । कृ॒णो॒मि॒ । २.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
यावती द्यावापृथिवी वरिम्णा यावदापः सिष्यदुर्यावदग्निः। ततस्त्वमसि ज्यायान्विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्कृणोमि ॥
स्वर रहित पद पाठयावती इति । द्यावापृथिवी इति । वरिम्णा । यावत् । आप: । सिस्यदु: । यावत् । अग्नि: । तत: । त्वम् । असि ।ज्यायान् । विश्वहा । महान् । तस्मै । ते । काम । नम: । इत् । कृणोमि । २.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(यावती) जितने कुछ (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूलोक (वरिम्णा) अपने फैलाव से हैं, (यावत्) जहाँ तक (आपः) जलधाराएँ (सिस्वदुः) बही हैं और (यावत्) जितना कुछ (अग्निः) अग्नि वा बिजुली है। (ततः) उससे (त्वम्) तू.... म० १९॥२०॥
भावार्थ
सूर्य, पृथिवी आदि पदार्थों का उत्पन्न करनेवाला और जाननेवाला परमेश्वर ही है ॥२०॥
टिप्पणी
२०−(यावती) यावत्यौ। यत्प्रमाणे (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (वरिम्णा) अ० ४।६।२। विस्तारेण (यावत्) यत्प्रमाणम् (आपः) जलधाराः (सिस्यदुः) स्यन्दू प्रस्रवणे-लिटि छान्दसं रूपम्। सस्यन्दिरे (यावत्) (अग्निः) पावकः। विद्युत्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( यावती ) = जितने कुछ ( द्यावापृथिवी ) = सूर्य और भूलोक ( वरिम्णा ) = अपने फैलाव से फैले हुए है, ( यावत् ) = जहाँ तक ( आपः ) = जलधाराएँ ( सिष्यदुः ) = बहती हैं और ( यावत् ) = जितना कुछ ( अग्नि: ) = अग्नि वा बिजली है ( ततः ) = उसे से ( त्वम् ) = आप ( ज्यायान् ) = अधिक बड़े ( विश्वहा ) = सब प्रकार ( महान् ) = बड़े पूजनीय ( असि ) = हैं, ( तस्मै ते ) = उस आपको ( इत् ) = ही ( काम ) = हे कामना करने योग्य परमेश्वर ! ( नमः कृणोमि ) = नमस्कार करता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ = परमेश्वर सूर्य, पृथिवी आदि पदार्थों का उत्पन्न करनेवाला और जाननेवाला है । आकाशादि सबसे बड़ा है। उसी को हम प्रणाम करें और उसी की उपासना करें ।
विषय
'महान्' प्रभु
पदार्थ
१. (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक और पृथिवीलोक (वरिम्णा) = विस्तार से (यावती) = जितने बड़े हैं, (यावत्) = जितनी भी दूर तक (आपः सिष्यदः) = ये जल बह रहे हैं, (यावत्) = जितनी यह (अग्नि:) = अग्नि विस्तृत है, (यावती:) = जितनी दूर तक (विषूची:) = [वि सु अञ्च] चारों ओर फैलनेवाली (दिशः प्रदिश:) = ये दिशाएँ व उपदिशाएँ फैली हैं, (यावती:) = जितनी दूर तक (दिवः अभिचक्षणा:) = द्युलोक के प्रकाश को प्रकट करनेवाली (आशा:) = ये दिशाएँ हैं,२.हे (काम) = कमनीय प्रभो! (त्वम्) = आप (तत:) = उनसे (ज्यायान् असि) = अधिक बड़े हैं। (विश्वहा) = सदा (महान्) = महनीय व पूजनीय हैं, (तस्मै ते) = उन आपके लिए (इत्) = निश्चय से (नमः कृणोमि) नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ
प्रभु की महिमा 'द्यावापृथिवी, जल, अग्नि, दिशा-प्रदिशाओं से महान् है। उस महान् प्रभु के लिए हम सदा प्रणाम करते हैं।
भाषार्थ
(वरिम्णा) विस्तार से (यावती द्यावापृथिवी) जितनी द्यौः— पृथिवी हैं, (यावत्) जितनी दूर तक (आपः सिष्यदुः) जल प्रस्रवित हो रहे हैं, (यावत्) जितनी दूर तक (अग्निः) अग्नि व्याप्त हो रही है, (ततः) उस सब से (त्वम् असि ज्यायान् विश्वहा) तु सदा ज्येष्ठ है, बड़ा है, (महान्) और महान् है। (काम) हे कमनीय परमेश्वर ! (तस्मै ते) उस तेरे प्रति (नमः इत्) नमस्कार ही (कृणोमि) मैं करता हूं।
टिप्पणी
[द्यावापृथिवी, आपः और अग्नि के सम्मिलित विस्तार से भी तेरा विस्तार अधिक है। "आपः," पृथिवी में नदियों, समुद्रों, कूपों, भरनों, बर्फ आदि के रूप में, अन्तरिक्ष में वाष्प तथा मेघ के रूप में, तथा “दिवि", द्यौः में भी वर्षा के रूप में व्याप्त है (मन्त्र ९।१।२०), अग्नि भी सर्वत्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त है]
विषय
प्रजापति परमेश्वर और राजा और संकल्प का ‘काम’ पद द्वारा वर्णन।
भावार्थ
(द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी, आकाश और भूमि (वरिम्णा) अपने विस्तार से (यावती) जितनी बड़ी हैं, और (आपः) जल या संसार की आदिमूल प्रकृति के सूक्ष्म, व्यापक परमाणु (यावत्) जितने विस्तार में (सिध्यदुः) फैले हैं और (अग्नि) तेजोमय पदार्थ, अग्नि जितनी दूर तक फैली है, हे (काम) कान्तिमान् तेजोमय परमेश्वर ! (ततः त्वम् ज्यायान् असि) तू उससे भी बड़ा है। तू (विश्वहा महान् असि) सर्वव्यापक, महान् है। (तस्मै इत् नमः कृणोमि) उस तुझे ही मैं नमस्कार करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः॥ कामो देवता॥ १, ४, ६, ९, १०, १३, १९, २४ अनुष्टुभः। ५ अति जगती। ८ आर्चीपंक्तिः। ११, २०, २३ भुरिजः। १२ अनुष्टुप्। ७, १४, १५ १७, १८, २१, २२ अतिजगत्यः। १६ चतुष्पदा शक्वरीगर्भा पराजगती। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kama: Love and Determination
Meaning
Howsoever far and wide heaven and earth with their expanse exist, as far as waters of the earth, sky and space roll and flow, as far as light and fire glow and radiate, you are greater and higher than all that, all times all ways, the greatest indeed. Hence O lord of love and creative desire, loved and worshipped of all, I offer you salutations in homage.
Translation
As far as the heaven and earth extend in their vastness: as far as the waters extend, and as far as the fire; you are superior to them, great in all the respects; as such to you, O Kama, I bow in reverence.
Translation
This Kama is so wide as the space which the earth and heavenly region extensively encompass, it is as far as the waters flow and it is so extensive as the fire spreads out, it is stronger than these, it has the power of over -powering all and is great. Thus I accept this strength of Kama.
Translation
Wide is the space which heaven and earth encompass, far do the waters flow, far does the fire spread. Stronger than these art Thou, and great for ever, O God, to Thee, to Thee Ioffer worship.
Footnote
आपः (Apa) may also mean the subtle atoms of Matter.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०−(यावती) यावत्यौ। यत्प्रमाणे (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (वरिम्णा) अ० ४।६।२। विस्तारेण (यावत्) यत्प्रमाणम् (आपः) जलधाराः (सिस्यदुः) स्यन्दू प्रस्रवणे-लिटि छान्दसं रूपम्। सस्यन्दिरे (यावत्) (अग्निः) पावकः। विद्युत्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
য়াবতী দ্যাবাপৃথিবী বরিম্ণা য়াবদাপঃ সিষ্যদুর্য়াবদগ্নিঃ।
ততস্ত্বমসি জ্যায়ান্বিশ্বহা মহাঁস্তস্মৈ তে কাম নম ইৎকৃণোমি।।৪৫।।
(অথর্ব ৯।২।২০)
পদার্থঃ (য়াবতী) যত বিশাল (দ্যাবাপৃথিবী) দ্যুলোক ও ভূলোকের (বরিম্ণা) বিস্তৃতি, (য়াবৎ) যতদূর (আপঃ) জলধারা (সিস্যদুঃ) প্রবাহিত হয়, (য়াবৎ) যত বিস্তৃত (অগ্নিঃ) আগুন বা বিদ্যুৎ, (ততঃ) তার চেয়েও (ত্বম্) তুমি (জ্যায়ান্) অধিক বিশাল (বিশ্বহা) সবচেয়ে (মহান্অসি) বড় পূজনীয়। (তস্মৈ তে ইৎ) সেই তুমিই (কামঃ) কামনা করার যোগ্য; (নমঃ কৃণোমি) তোমাকে নমস্কার করছি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরমেশ্বর সূর্য, পৃথিবী আদি লোকের সৃষ্টিকর্তা এবং সমস্ত কিছু জানেন। তিনি আকাশাদি অনন্তের চেয়েও বিশাল। সেই পরমাত্মাকেই আমরা প্রণাম করি এবং উপাসনা করি ।।৪৫।।
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