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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कामः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - काम सूक्त
    78

    कामो॑ जज्ञे प्रथ॒मो नैनं॑ दे॒वा आ॑पुः पि॒तरो॒ न मर्त्याः॑। तत॒स्त्वम॑सि॒ ज्याया॑न्वि॒श्वहा॑ म॒हांस्तस्मै॑ ते काम॒ नम॒ इत्कृ॑णोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    काम॑: । ज॒ज्ञे॒ । प्र॒थ॒म: । न । ए॒न॒म् । दे॒वा: । आ॒पु॒: । पि॒तर॑: । न । मर्त्या॑: । तत॑: । त्वम् । अ॒सि॒ । ज्याया॑न् । वि॒श्वहा॑ । म॒हान् । तस्मै॑ । ते॒ । का॒म॒ । नम॑: । इत् । कृ॒णो॒मि॒ ॥२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कामो जज्ञे प्रथमो नैनं देवा आपुः पितरो न मर्त्याः। ततस्त्वमसि ज्यायान्विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्कृणोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    काम: । जज्ञे । प्रथम: । न । एनम् । देवा: । आपु: । पितर: । न । मर्त्या: । तत: । त्वम् । असि । ज्यायान् । विश्वहा । महान् । तस्मै । ते । काम । नम: । इत् । कृणोमि ॥२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (कामः) कामनायोग्य [परमेश्वर] (प्रथमः) पहिले ही पहिले [होकर] (जज्ञे) प्रकट हुआ, (एनम्) इसको (न) न तो (पितरः) पालनशील (देवाः) चलनेवाले लोकों [पृथिवी, सूर्य आदि] और (न)(मर्त्याः) मनुष्यों ने (आपुः) पाया। (ततः) उससे (त्वम्) तू (ज्यायान्) अधिक बड़ा, (विश्वहा) सब प्रकार (महान्) महान् [पूजनीय] (असि) है, (तस्मै ते) उस तुझको (इत्) ही, (काम) हे कामनायोग्य [परमेश्वर !] (नमः) नमस्कार (कृणोमि) करता हूँ ॥१९॥

    भावार्थ

    जो परमेश्वर अनादि, अनुपम, सर्वशक्तिमान् है, उसी की प्रार्थना उपासना सब मनुष्य करें ॥१९॥

    टिप्पणी

    १९−(कामः) कमनीयः परमेश्वरः (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (प्रथमः) सृष्टेः प्राग् वर्तमानः (न) निषेधे (एनम्) परमेश्वरम् (देवाः) गतिमन्तो लोकाः पृथिवीसूर्यादयः (आपुः) प्राप्तवन्तः (पितरः) रक्षितारः (न) (मर्त्याः) मनुष्याः (ततः) तस्मात् कारणात् (त्वम्) (असि) (ज्यायान्) वृद्ध-ईयसुन्। वृद्धतरः (विश्वहा) विश्वधा। सर्वथा (महान्) पूजनीयः (तस्मै) तथाविधाय (ते) तुभ्यम् (काम) (नमः) सत्कारम् (इत्) एव (कृणोमि) करोमि ॥

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    विषय

    'प्रथम' प्रभु

    पदार्थ

    १.(काम:) = वह कमनीय प्रभु (प्रथम: जज्ञे) = सबसे पूर्व प्रादुर्भूत हुए-हुए हैं-वे सबसे प्रथम स्थान पर हैं, अग्नि हैं-अग्रणी। प्रभु सब गुणों की चरम सीमा ही तो हैं, अतः वे प्रथम हैं। श्रेष्ठता में (एनम्) = इस प्रभु को (न) = न तो (देवा:) = देव [ज्ञानी ब्राह्मण] (आपु:) = प्राप्त कर पाते हैं, (न पितरः मर्त्याः) = न ही रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त पितर [क्षत्रिय] तथा धन-धान्यादि के अर्जन में प्रवृत्त मनुष्य [वैश्य] पा सकते हैं। २. (तत:) = इसप्रकार हे प्रभो! (त्वम्) = आप (ज्यायान्) = सबसे अधिक प्रशस्य (असि) = हैं, (विश्वहा) = सदा (महान्) = महनीय हैं। हे (काम) = कमनीय प्रभो! (तस्मै ते) = उन आपके लिए (इत्) = निश्चय से (नमः कृणोमि) = मैं नमस्कार करता हूँ-मैं आपके प्रति नतमस्तक होता है।

    भावार्थ

    प्रभु सर्वप्रथम हैं। ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य भी प्रभु के समान नहीं। उस सदा प्रशस्त व महान् के लिए मैं नतमस्तक होता हूँ।

     

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    भाषार्थ

    (कामः) कमनीय परमेश्वर (प्रथम) सर्वप्रथम (जज्ञे) प्रकट हुआ, (एनम्) इसे (न देवाः आयुः) न देवों ने प्राप्त किया, (न पितरः, मर्न्याः) न पितरों ने और मर्त्यों ने (ततः) इस लिये या उनसे (म्) तू (विश्वहा) सदा से (ज्यायान् असि) ज्येष्ठ है और (महान्) महान् है। (काम) हे कमनीय परमेश्वर ! (तस्मै ते) उस तेरे प्रति (नमः इत्) नमस्कार ही (कृणोमि) मैं करता हूं।

    टिप्पणी

    [विश्वहा= अथवा सव "सपत्नों का हनन करने वाला"। नमः इत्= अभिप्राय यह है कि हे काम ! तू इतना महान् है कि तेरे प्रति जो भी भेंट लाऊं वह अति तुच्छ ही होगी, इस लिये नमः द्वारा मैं तेरे प्रति निज नम्रता ही भेंट करता हूं]

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    विषय

    प्रजापति परमेश्वर और राजा और संकल्प का ‘काम’ पद द्वारा वर्णन।

    भावार्थ

    (कामः) कान्तिमान् सबका अभिलषणीय वह महान् संकल्पमय ईश्वर (प्रथमः) सब से प्रथम (जज्ञे) प्रकट होता है और (एनम्) उसके समान पद को (देवाः) देवगण, विद्वान् पुरुष या सूर्य, चन्द्र आदि पदार्थ (पितरः) पालक मा-बाप या ऋतुएं और (मर्त्याः) मनुष्य आदि प्राणि भी (न आपुः) नहीं प्राप्त होते, (ततः) इसी कारण हे (काम) संकल्पमय ब्रह्मन् ! (त्वम् ज्यायान् असि) तू सब से श्रेष्ठ (विश्वहा) सर्वव्यापक और (महान्) सब से बड़ा है। (तस्मै ते) उस तुझे मैं (नमः इत्) नमस्कार (कृणोमि) करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः॥ कामो देवता॥ १, ४, ६, ९, १०, १३, १९, २४ अनुष्टुभः। ५ अति जगती। ८ आर्चीपंक्तिः। ११, २०, २३ भुरिजः। १२ अनुष्टुप्। ७, १४, १५ १७, १८, २१, २२ अतिजगत्यः। १६ चतुष्पदा शक्वरीगर्भा पराजगती। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kama: Love and Determination

    Meaning

    The Eternal Spirit of divine love and creative desire, highest love and faith of the world of existence, was the first to manifest. No Devas, divinities of nature such as sun and moon, nor the noblest of humanity, nor the highest minds, sense and intellect, nor Pitaras, sustainers of life, nor all the mortals in existence have been able to comprehend It. For that reason, O Spirit Divine, all-comprehending, you are greater and higher than all the created forms, all times, all ways, the greatest indeed. Hence O lord of love and desire, loved and worshipped of all, I offer you salutations in homage.

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    Translation

    Kama (passion or desire) was born first of all. Neither the enlightened ones, nor the elders, nor the mortals could equal him. You are superior to them, great in all respects; as such to you, O Kama, I bow in reverence.

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    Translation

    The desire was manifest first before all. Physical forces, the rays of moon and the localities of immortality could not match it. This is stronger than that If these, it has the power of overpowering all and is great. Thus I accept this strength of Kama.

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    Translation

    God existed before the creation of the universe. Sages, Nature’s forces, Fathers and mortal men have never matched Him, Stronger than these art Thou, and great for ever, O God, to Thee, to Thee I offer worship!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(कामः) कमनीयः परमेश्वरः (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (प्रथमः) सृष्टेः प्राग् वर्तमानः (न) निषेधे (एनम्) परमेश्वरम् (देवाः) गतिमन्तो लोकाः पृथिवीसूर्यादयः (आपुः) प्राप्तवन्तः (पितरः) रक्षितारः (न) (मर्त्याः) मनुष्याः (ततः) तस्मात् कारणात् (त्वम्) (असि) (ज्यायान्) वृद्ध-ईयसुन्। वृद्धतरः (विश्वहा) विश्वधा। सर्वथा (महान्) पूजनीयः (तस्मै) तथाविधाय (ते) तुभ्यम् (काम) (नमः) सत्कारम् (इत्) एव (कृणोमि) करोमि ॥

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