अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
सा ते॑ काम दुहि॒ता धे॒नुरु॑च्यते॒ यामा॒हुर्वाचं॑ क॒वयो॑ वि॒राज॑म्। तया॑ स॒पत्ना॒न्परि॑ वृङ्ग्धि॒ ये मम॒ पर्ये॑नान्प्रा॒णः प॒शवो॒ जीव॑नं वृणक्तु ॥
स्वर सहित पद पाठसा । ते॒ । का॒म॒ । दु॒हि॒ता । धे॒नु: । उ॒च्य॒ते॒ । याम् । आ॒हु: । वाच॑म् । क॒वय॑: । वि॒ऽराज॑म् । तया॑ । स॒ऽपत्ना॑न् । परि॑ । वृ॒ङ्ग्धि॒ । ये । मम॑ । परि॑ । ए॒ना॒न् । प्रा॒ण: । प॒शव॑: । जीव॑नम् । वृ॒ण॒क्तु॒ ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
सा ते काम दुहिता धेनुरुच्यते यामाहुर्वाचं कवयो विराजम्। तया सपत्नान्परि वृङ्ग्धि ये मम पर्येनान्प्राणः पशवो जीवनं वृणक्तु ॥
स्वर रहित पद पाठसा । ते । काम । दुहिता । धेनु: । उच्यते । याम् । आहु: । वाचम् । कवय: । विऽराजम् । तया । सऽपत्नान् । परि । वृङ्ग्धि । ये । मम । परि । एनान् । प्राण: । पशव: । जीवनम् । वृणक्तु ॥२.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(काम) हे कमनीय परमात्मन् (सा) वह [हमारी कामनायें] (दुहिता) पूरण करनेवाली (ते) तेरी (धेनुः) वाणी (उच्यते) कही जाती है, (वाम्) जिस (वाचम्) वाणी को (कवयः) बुद्धिमान् लोग (विराजम्) विविध ऐश्वर्यवाली (आहुः) कहते हैं। (तया) उस [वाणी] से (सपत्नान्) उन वैरियों को (परि वृङ्ग्धि) हटा दे, (ये) जो (मम) मेरे [शत्रु हैं,] (एनान्) उन [शत्रुओं] को (प्राणः) प्राण, (पशवः) सब जीव और (जीवनम्) जीवनवृत्ति (परि वृणक्तु) त्याग देवे ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ वेदवाणी का आश्रय लेते हैं, वे अपने शत्रुओं को निर्बल करने में समर्थ होते हैं ॥५॥
टिप्पणी
५−(सा) प्रसिद्धा (ते) तव (काम) कमनीय (दुहिता) अ० ३।१०।१३। कामानां प्रपूरयित्री (धेनुः) अ० ३।१०।१। तर्पयित्री वाक्-निघ० १।११। (उच्यते) (याम्) (आहुः) कथयन्ति (वाचम्) वेदवाणीम् (कवयः) मेधाविनः (विराजम्) अ० ८।९।१। विवधेश्वरीम् (तया) वाचा (सपत्नान्) शत्रून् (परिवृङ्ग्धि) सर्वतो वर्जय (ये) शत्रवः (मम) (परि) (एनान्) सपत्नान् (प्राणः) आत्मोत्कर्षः (पशवः) प्राणिनः (जीवनम्) जीवनसाधनम् (वृणक्तु) अ० १।३०।३। वर्जयतु ॥
विषय
दुहिता 'धेनुः
पदार्थ
१. हे (काम) = कमनीय प्रभो! (सा) = वह (ते) = आपकी (धेनुः) = वेदधेनु ज्ञानदुग्ध का पान करानेवाली वेदवाणी (दुहिता) = सब कामनाओं का प्रपूरण करनेवाली (उच्यते) = कही जाती है। (यां वाचम्) = जिस वेदवाणी को (कवयः) = ज्ञानी लोग (विराजम् आहुः) = विशिष्ट दीमिवाला कहते हैं, (तया) = उस वेद वाणी द्वारा (ये मम) = जो मेरे शत्रु हैं, उन (सपत्नान् परिवृङ्ग्धि) = शत्रुओं को दूर कीजिए । २. (एनान्) = इन शत्रुओं को (प्राण:) = प्राण (पशव:) = गौ [पश्यन्ति] ज्ञानेन्द्रियाँ तथा (जीवनम्) = जीवन (परिवृणक्तु) = छोड़ जाएँ। इन शत्रुत्व की वृत्तिवालों की 'प्राणशक्ति, ज्ञानेन्द्रियों व जीवन-शक्ति' नष्ट हो जाए।
भावार्थ
शत्रुत्व की वृत्तिवाले व्यक्ति वेदवाणी से, प्राण, पशुओं व जीवन से पृथक् हो जाएँ।
भाषार्थ
(काम) हे कमनीय परमेश्वर ! (ते) तेरी (दुहिता) बेटी या तेरी कामना को दोहन करने वाली, पूरा करने वाली (धेनुः) दुधार गौ (उच्यते) कही जाती है, (याम्) जिसे कि (कवयः) मेधावी जन (विरजम्, वाचम् आहुः) ज्ञान के प्रकाश के प्रकाशित वाणी कहते हैं। (तया) उस वाणी द्वारा (सपत्नान्) सपत्नों को (परिवृङ्धि) हटा दे (ये मम) जो मेरे हैं, (एनाम्) इन सपत्नों को (प्राणः) मेरा प्राण (पशवः) मेरी इन्द्रियां, (जीवनम्) मेरा जीवन (परिवृणक्तु) सर्वथा त्याग दे।
टिप्पणी
[वाचम्= वेदवाणी परमेश्वर की मानो बेटी है, उस से उत्पन्न हुई है। वह दुधारू गो है जोकि ज्ञान और सत्कर्म रूपी दुग्ध प्रदान करती है। वेद वाणी के अनुसार जीवनचर्या करने से सपत्न हट जाते हैं, और इन के हटाने में परमेश्वर सहयोग प्रदान करता है। पशवः= इन्द्रियां। यथा “इन्द्रियाणि हयानाहुः" (कठ १।३।४) इन्द्रियों को हय अर्थात् अश्व कहते हैं। ये इन्द्रियां जब तक सपत्नों की साथिन बनी रहती हैं तब तक ये पशुरूप ही हैं]।
विषय
प्रजापति परमेश्वर और राजा और संकल्प का ‘काम’ पद द्वारा वर्णन।
भावार्थ
हे (काम) सत्संकल्प ! (सा) वह अर्थों का प्रकाश करने वाली वेदवाणी (ते) तेरे लिए (धेनुः) उत्तम रसों का पान कराने हारी (दुहिता) सब अभिलाषाओं को पूर्ण करने हारी (उच्यते) कहाती है (याम्) जिस वेदवाणी को (कवयः) क्रान्तदर्शी लोग (विराजम् वाचम्) ‘विराड्’ अर्थात् सदर्थों या प्रकाश करने वाली ‘वाक्’ (आहुः) कहते हैं। (तया) उसे ‘विराड्–वाणी’ द्वारा (सपत्नान्) अन्तः-शत्रुओं का (परि वृङ्धि) विनाश कर, दूर कर। और (एनान्) इन (मम) मेरे अन्तः-शत्रुओं को (प्राणः) प्राण (पशवः) पशु लोग और (जीवनम्) जीवन भी (परि वृणक्तु) छोड़ दे। अर्थात् इन अन्तः-शत्रुओं का सम्बन्ध न तो हमारे प्राण से है, न हमारे शत्रुओं से है, और न हमारे जीवनों से है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः॥ कामो देवता॥ १, ४, ६, ९, १०, १३, १९, २४ अनुष्टुभः। ५ अति जगती। ८ आर्चीपंक्तिः। ११, २०, २३ भुरिजः। १२ अनुष्टुप्। ७, १४, १५ १७, १८, २१, २२ अतिजगत्यः। १६ चतुष्पदा शक्वरीगर्भा पराजगती। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kama: Love and Determination
Meaning
O Kama, lord of my love, life and faith, that Word of eternal knowledge, the Veda, which the poets say is the lazer beam of original light and vision of life, is your darling daughter, and it is the holy cow which is the perennial giver of the very life and immaculate spirit of Being. With that light, pray, uproot all our adverse rivals that split our integrity. Drive them off so that my pranic energy, senses and mind, and the very life of me be free from the very root of existence (adversaries, adversities, negativities).
Translation
O Käma, that milch-cow is said to be your daughter whom the sages have called the illuminating speech. With her, may you expel those, who are my rivals. May the vital breath, cattle and life forsake them.
Translation
O all-desirable Divinity ! that speech of yours is called Duhita, that which fulfils all the desires and that is that which the men of penetrative geneus describe Virat, the speech which is refulgent with meenings. With that speech drive away our internal foes and let the life, animals and the source of life leave them out.
Translation
O God, Thy Vedic speech is spoken of as the Fulfiller of all desires. The sages name it as the Revealer of true ideas. Through her, drive away my internal foes, O God! May vital breath, cattle and life forsake them.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(सा) प्रसिद्धा (ते) तव (काम) कमनीय (दुहिता) अ० ३।१०।१३। कामानां प्रपूरयित्री (धेनुः) अ० ३।१०।१। तर्पयित्री वाक्-निघ० १।११। (उच्यते) (याम्) (आहुः) कथयन्ति (वाचम्) वेदवाणीम् (कवयः) मेधाविनः (विराजम्) अ० ८।९।१। विवधेश्वरीम् (तया) वाचा (सपत्नान्) शत्रून् (परिवृङ्ग्धि) सर्वतो वर्जय (ये) शत्रवः (मम) (परि) (एनान्) सपत्नान् (प्राणः) आत्मोत्कर्षः (पशवः) प्राणिनः (जीवनम्) जीवनसाधनम् (वृणक्तु) अ० १।३०।३। वर्जयतु ॥
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