अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 12
तेध॒राञ्चः॒ प्र प्ल॑वन्तां छि॒न्ना नौरि॑व॒ बन्ध॑नात्। न साय॑कप्रणुत्तानां॒ पुन॑रस्ति नि॒वर्त॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठते । अ॒ध॒राञ्च॑: । प्र । प्ल॒व॒न्ता॒म् । छि॒न्ना । नौ:ऽइ॑व । बन्ध॑नात् । न । साय॑कऽप्रनुत्तानाम् । पुन॑: । अ॒स्ति॒ । नि॒ऽवर्त॑नम् ॥२.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
तेधराञ्चः प्र प्लवन्तां छिन्ना नौरिव बन्धनात्। न सायकप्रणुत्तानां पुनरस्ति निवर्तनम् ॥
स्वर रहित पद पाठते । अधराञ्च: । प्र । प्लवन्ताम् । छिन्ना । नौ:ऽइव । बन्धनात् । न । सायकऽप्रनुत्तानाम् । पुन: । अस्ति । निऽवर्तनम् ॥२.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(ते) वे (अधराञ्चः) अधोगतिवाले लोग (बन्धनात्) बन्धन से (छिन्ना) छूटी हुई (नौः इव) नाव के समान (प्र प्लवन्ताम्) बहते चले जावें। (सायकप्रणुत्तानाम्) तीर से ढकेले गये पदार्थों का (निवर्तनम्) लौटना (पुनः) फिर (न) नहीं (अस्ति) होता है ॥१२॥
भावार्थ
जो मनुष्य दृढ़ उपायों से विघ्नों को हटाते हैं, वे सहज में सदा निर्विघ्न रहते हैं ॥१२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ० ३।६।७ ॥
टिप्पणी
१२−(सायकप्रणुत्तानाम्) बाणैः प्रेरितानाम्। अन्यद् व्याख्यातम् अ० ३।६।७ ॥
विषय
शत्रुविद्रावण
पदार्थ
१.(ते) = वे हमारे शत्रु (अधराञ्चः) = निम्न गतिवाले होकर (प्रप्लवन्ताम्) = उसी प्रकार बह जाएँ, (इव) = जैसेकि (बन्धनात्) = बन्धन से (छिन्ना) = छिन्न हुई-हुई (नौः) = नाव बह जाती है। सायक (प्रणुत्तानाम्) = बाणों के द्वारा दूर प्रेरित किये हुए इन शत्रुओं का (पुन:) = फिर (निवर्तनं न अस्ति) = लौटना नहीं है।
भावार्थ
दुर्गति को प्राप्त शत्रु बन्धन से छिन्न नौका की भाँति बह जाएँ। बाणों के द्वारा परे धकेले शत्रु फिर लौटने का नाम न लें।
भाषार्थ
(ते) वे सपत्न (अधराञ्चः) नीचे की ओर (प्रप्लवन्ताम्) वह जांय, (इव) जैसे कि (बन्धनात्) बन्धन से (छिन्ना) टूटी (नौः) नौका नदी के प्रवाह में नीचे की ओर (सायक प्रणुत्तानाम्) वाण द्वारा धकेले हुआ का (पुनः) फिर (निवर्तनम्) लौट आना (न अस्ति) नहीं होता।
टिप्पणी
[अधराञ्चः= नदी का प्रवाह नीचे की ओर होता है। अधराञ्चः= अधर (नीचे) + अञ्चु (गतौ)। अथवा अधराञ्चः= अधरतमस् वाले, तमोगुण सपत्न (मन्त्र ९)। सायक प्रणुत्तानाम्= अध्यात्म प्रकरण में सायक का अभिप्राय है, आत्मरूपी शर, वाण आत्मशक्ति। यथा “प्रणवो धनुः शरोह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते" में आत्मा को शर अर्थात् वाण कहा है। आत्मशक्ति से धकेले गए काम, क्रोध आदि सपत्न पुनः आक्रमण नहीं कर पाते।]
विषय
प्रजापति परमेश्वर और राजा और संकल्प का ‘काम’ पद द्वारा वर्णन।
भावार्थ
(बन्धनात्) बन्धन से (छिन्ना) कटी हुई (नौः इव) नाव जिस प्रकार नदी के प्रवाह में बह जाती है उसी प्रकार (ते) वे अन्तः शत्रुगण (अधराञ्चः) जो कि नीचे ही नीचे ले जाते हैं (प्र प्लवन्ताम्) मेरे शरीर से मानों बहकर बाहिर निकल जायँ। ठीक भी है कि (सायक-प्रणुत्तानाम्) सत्संकल्परूपी बाणों की मार से दूर किये हुए अन्तःशत्रुओं का (पुनः) फिर (निवर्त्तनम्) लौट कर आना (न अस्ति) नहीं होता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः॥ कामो देवता॥ १, ४, ६, ९, १०, १३, १९, २४ अनुष्टुभः। ५ अति जगती। ८ आर्चीपंक्तिः। ११, २०, २३ भुरिजः। १२ अनुष्टुप्। ७, १४, १५ १७, १८, २१, २२ अतिजगत्यः। १६ चतुष्पदा शक्वरीगर्भा पराजगती। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kama: Love and Determination
Meaning
Broken off from their stronghold, let them run adrift and flow down like a boat cut off from the moorings. Shot off by the arrow from the bow, there is no return for the negativities.
Translation
(Av. III.6.7 Variation)
Translation
Let our enemies drift downward like a boat torn from the rope holding it fast. There is no return back for those whom the keen arrows have repelled.
Translation
Just as a boat tom from the rope that holds it fast, drifts in the stream; so may my internal moral foes drift away from my body. There is no turning back for those whom keen arrows have repelled.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(सायकप्रणुत्तानाम्) बाणैः प्रेरितानाम्। अन्यद् व्याख्यातम् अ० ३।६।७ ॥
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