अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
सूक्त - अथर्वा
देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
तांस्त्वं प्र च्छि॑न्द्धि वरण पु॒रा दि॒ष्टात्पु॒रायु॑षः। य ए॑नं प॒शुषु॒ दिप्स॑न्ति॒ ये चा॑स्य राष्ट्रदि॒प्सवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतान् । त्वम् । प्र । छि॒न्ध्दि॒ । व॒र॒ण॒ । पु॒रा । दि॒ष्टात् । पु॒रा । आयु॑ष: । ये । ए॒न॒म् । प॒शुषु॑ । दिप्स॑न्ति । ये । च॒ । अ॒स्य॒ । रा॒ष्ट्र॒ऽदि॒प्सव॑: ॥३.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
तांस्त्वं प्र च्छिन्द्धि वरण पुरा दिष्टात्पुरायुषः। य एनं पशुषु दिप्सन्ति ये चास्य राष्ट्रदिप्सवः ॥
स्वर रहित पद पाठतान् । त्वम् । प्र । छिन्ध्दि । वरण । पुरा । दिष्टात् । पुरा । आयुष: । ये । एनम् । पशुषु । दिप्सन्ति । ये । च । अस्य । राष्ट्रऽदिप्सव: ॥३.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(वरण) हे शत्रुनिवारक-सेनाध्यक्ष ! (त्वम्) तू (तान्) उन्हें (दिष्टात् पुरा) राजा द्वारा निर्देश पाने से पहिले ही (प्रच्छिन्द्धि) छिन्न-भिन्न कर दे (पुरा आयुषः) चाहे वे अल्प आयु के ही हों, (ये) जोकि (एनम्) इस जो राजा को (पशुषु) पशुओं की प्राप्ति के निमित्त (दिप्सन्ति) मारना चाहते हैं, या इसके साथ दम्भ अर्थात् छल-कपट करना चाहते हैं, (ये च) और जो (अस्य) इस राजा के (राष्ट्रदिप्सवः) राष्ट्रच्युति के निमित्त उसे मारना चाहते हैं या उसके साथ दम्भ अर्थात् छल-कपट करना चाहते हैं।
टिप्पणी -
[दिप्सवः, “दभ्नोति वधकर्मा" (निघं० २।१९); तथा दम्भु दम्भनें (स्वादिः), दम्भनम् = छल-कपट। सेना का सर्वोच्चाधिकारी, युद्धनिमित्त प्रस्थान करते समय, राजा और राष्ट्र की रक्षा के लिये निर्देश देता है। पुरायुषः= "छोटी आयु का शत्रु है, इस का विचार न करते हुए, दिप्सु के बध करने का निर्देश हुआ है]।