अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
व॑र॒णो वा॑रयाता अ॒यं दे॒वो वन॒स्पतिः॑। यक्ष्मो॒ यो अ॒स्मिन्नावि॑ष्ट॒स्तमु॑ दे॒वा अ॑वीवरन् ॥
स्वर सहित पद पाठव॒र॒ण: । वा॒र॒या॒तै॒ । अ॒यम् । दे॒व: । वन॒स्पति॑: । यक्ष्म॑: । य: । अ॒स्मिन् ।आऽवि॑ष्ट: । तम् । ऊं॒ इति॑ । दे॒वा: । अ॒वी॒व॒र॒न् ॥३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
वरणो वारयाता अयं देवो वनस्पतिः। यक्ष्मो यो अस्मिन्नाविष्टस्तमु देवा अवीवरन् ॥
स्वर रहित पद पाठवरण: । वारयातै । अयम् । देव: । वनस्पति: । यक्ष्म: । य: । अस्मिन् ।आऽविष्ट: । तम् । ऊं इति । देवा: । अवीवरन् ॥३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(अयम्) यह (देवः) दिव्यगुणों वाला (वरणः वनस्पतिः) वरण-नामक वनस्पति, (वारयातै) तुझे [यक्ष्म रोग सें] निवारित करे। (यः) जो (यक्ष्मः) यक्ष्म रोग (अस्मिन्) इस रोगी में (आविष्टः) प्रविष्ट हो गया था (तम्) उसे (देवाः) दिव्यगुणी वैद्यों ने (अवीवरन्) निवारित कर दिया है। इस प्रकार मन्त्र में औषध और वैद्य दोनों का वर्णन है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में मुख्यरूप से यक्ष्मरोग तथा वरण-ओषधि का वर्णन है। वरण नामक सेनाध्यक्ष का भी वर्णन गौणरूप में हुआ है। सेनाध्यक्ष पक्ष में यक्ष्म रोग है पराधीनता। और वनस्पति है वनों का भी स्वामी सेनाध्यक्ष, ताकि वह राष्ट्र के वनों में छिपे शत्रुओं को पकड़ सके। "अस्मिन्" का अभिप्राय है इस स्वकीय-राष्ट्र में। देवः= विजिगीषुसेनाध्यक्ष। देवाः = विजिगीषु निज सैनिक। वनस्पतिः = वनानां पाताः पालयिता वा।]