अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 15
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
सर्वे॑ देवा अ॒त्याय॑न्तु॒ त्रिष॑न्धे॒राहु॑तिः प्रि॒या। सं॒धां म॑ह॒तीं र॑क्षत॒ ययाग्रे॒ असु॑रा जि॒ताः ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वे॑ । दे॒वा: । अ॒ति॒ऽआय॑न्तु । त्रिऽसं॑धे: । आऽहु॑ति: । प्रि॒या । स॒म्ऽधाम् । म॒ह॒तीम् । र॒क्ष॒त॒ । यया॑ । अग्रे॑ । असु॑रा: । जि॒ता: ॥१२.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वे देवा अत्यायन्तु त्रिषन्धेराहुतिः प्रिया। संधां महतीं रक्षत ययाग्रे असुरा जिताः ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वे । देवा: । अतिऽआयन्तु । त्रिऽसंधे: । आऽहुति: । प्रिया । सम्ऽधाम् । महतीम् । रक्षत । यया । अग्रे । असुरा: । जिता: ॥१२.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 15
भाषार्थ -
(सर्व देवाः) सब देव (१४), (अति) निज, स्थानों को छोड़कर,(आयन्तु) युद्धार्थ आ जांय (त्रिषन्धेः) तीन राष्ट्रों के प्रतिनिधिरूप-सेना संचालक को (आहुतिः) युद्ध की यज्ञाग्नि में सब को अपनी आहुति देना (प्रिया) प्रिय है अभीष्ट हैं। (महती संधाम्) तीनों राष्ट्रों की महतीसन्धि की (रक्षत) रक्षा करो, (यया) जिस महती सन्धि द्वारा (अग्रे) पहिले१ भी (असुराः जिताः) असुरों पर विजय पाई है।
टिप्पणी -
[महती संधाम् = तीन राष्ट्रों ने मिल कर प्रतीज्ञा की है कि हम मिलकर असुरों पर विजय पायेंगे, इस प्रतिज्ञा की रक्षा करो, और इस की रक्षा के लिये अपनी-अपनी आहुति दो। अग्रे असुराः = अथवा "सेना के आगे युद्धार्थ आने वाले शत्रु असुर" अग्रे=In front of; at the head (आप्टे)] अर्थात् जो आसुरी सेना के अग्रभाग में स्थित हो कर युद्ध करें। ऐसे योद्धाओं को यजुर्वेद में "मरुतः" कहा है। मरुतः जोकि मारने में सिद्धहस्त हों और स्वयं की मृत्यु से भयभीत न हों। यथा “इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः। देवसेनानामभिभञ्जतीनाञ्जयन्तीनाम्मरुतो यन्त्वग्रम्।। यजु० १७॥४०॥" मरुतः यन्तु अग्रम्- ये शब्द विशेष ध्यान के योग्य हैं। मरुत्= म्रियते मारयति वा स मरुत्, मनुष्यजातिः (उणा० १।९४, महर्षि दयानन्द)]। [१. अथर्व० ११।९।२६ में "संजित्य" शब्द के अनुसार देव विजय पहिले पा चुके हैं। ११।१०।१ से युद्ध पुनः आरम्भ हुआ है।]