अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
तेनै॑नंविध्या॒म्यभू॑त्यैनं विध्यामि॒ निर्भू॑त्यैनं विध्यामि॒ परा॑भूत्यैनं विध्यामि॒ग्राह्यै॑नं विध्यामि॒ तम॑सैनं विध्यामि ॥
स्वर सहित पद पाठतेन॑ । ए॒न॒म् । वि॒ध्या॒मि॒ । अभू॑त्या । ए॒न॒म् । वि॒ध्या॒मि॒ । नि:ऽभू॑त्या । ए॒न॒म् । वि॒ध्या॒मि॒ । परा॑ऽभूत्या । ए॒न॒म् । वि॒ध्या॒मि॒ । ग्राह्या॑ । ए॒न॒म् । वि॒ध्या॒मि॒ । तम॑सा । ए॒न॒म् । वि॒ध्या॒मि॒ ॥७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तेनैनंविध्याम्यभूत्यैनं विध्यामि निर्भूत्यैनं विध्यामि पराभूत्यैनं विध्यामिग्राह्यैनं विध्यामि तमसैनं विध्यामि ॥
स्वर रहित पद पाठतेन । एनम् । विध्यामि । अभूत्या । एनम् । विध्यामि । नि:ऽभूत्या । एनम् । विध्यामि । पराऽभूत्या । एनम् । विध्यामि । ग्राह्या । एनम् । विध्यामि । तमसा । एनम् । विध्यामि ॥७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(तेन) इस लिये (एनम्) इस द्वेष्टा और शप्ता (सू० ६। मन्त्र ३) को (आ विध्यामि) मैं परमेश्वर या राजा वींधता हूं, (अभूत्या) सम्पत्ति प्राप्त न होने देने द्वारा (एनम्) इसको (आ विध्यामि) मैं वींधता हूं, (निर्भूत्या) प्राप्त हुई सम्पत्ति के निराकरण द्वारा (एनम्) इसे (आ विध्यामि) मैं वींधता हूं, (पराभूत्या) पराभव अर्थात् पराजय तथा अपमान द्वारा (एनम्) इसे (आ विध्यामि) मैं वींधता हूं, (ग्राह्याः) इसकी शक्तियों को जकड़ देने द्वारा (एनम्) इसे (आ विध्यामि) मैं वींधता हूं, (तमसा) तमोगुण के कारण या काल कोठरी द्वारा (एनम्) इसे (आ विध्यामि) मैं वींधता हूं।
टिप्पणी -
[प्रकरण के अनुसार द्वेष्टा तथा शप्ता (सू० ६ । मन्त्र ३,४) मन्त्र में दण्डों का विधान किया गया प्रतीत होता है। द्वेष करना तथा शाप देना तामसिक मनोवृत्तियों के कारण होता हैं, और ऐसी मनोवृत्तियों वालों को ही दुष्वप्न्य हुआ करते हैं। इस सच्चाई के दर्शाने के लिये दुष्वप्न्य प्रकरण में दुष्वप्न्य के कारणभूत द्वेष और शाप का वर्णन हुआ है। द्वेष और शाप का कथन केवल दृष्टान्त रूप में हुआ है। वध, चोरी, डकैती आदि तामसिक कर्मों का वर्णन भी यहां समझ लेना चाहिये। तभी मन्त्र की समाप्ति पर "तमसा" शब्द का प्रयोग हुआ है। मन्त्र में "आ विष्यामि" द्वारा परमेश्वर तथा राजा दोनों अभिप्रेत हैं। परमेश्वर तो व्यक्ति के कर्मों के अनुसार अपने ढंग से दण्ड प्रदान करता है, और राजा साक्षात् विधि से दण्ड प्रदाता होता है। केवल द्वेष और शाप के लिये अभूति आदि दण्ड कठोर अवश्य प्रतीत होते हैं। वेद में नैतिक जीवन का अत्युच्च आदर्श माना है। नैतिक जीवन अल्पापराध को भी वेदों में क्षमा की दृष्टि से नहीं देखा। कठोर दण्ड से ही नैतिक जीवन को पवित्र बनाया जा सकता है, अन्यथा प्रजा के जीवन में भ्रष्टाचार अधिकाधिक फैलता जाता है। झूठ बोलने तक को वेद ने बड़ा अपराध माना है, और इस लिये अनृतवक्ता के लिये भी कठोर दण्ड का विधान किया है। यथा “शतेन पाशैरभि धेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ्नृचक्षः। आस्तां जाल्म उदरं श्रंसयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः।। (अर्थव० ४।१६।७)॥ सूक्त ५ में भी अभूति आदि का वर्णन हुआ है, परन्तु वहां दण्ड विधान के रूप में वर्णन नहीं हुआ, क्योंकि सूक्त ५ में सात्त्विक स्वप्न का कथन हुआ है, जोकि दुष्वप्न्य का विनाशक है]