अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - प्राजापत्या बृहती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
इ॒दम॒हमा॑मुष्याय॒णे॒मुष्याः॑ पु॒त्रे दुः॒ष्वप्न्यं॑ मृजे ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । अ॒हम् । आ॒मु॒ष्या॒य॒णे । अ॒मुष्या॑: । पु॒त्रे । दु॒:ऽस्वप्न्य॑म् । मृ॒जे॒ ॥७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमहमामुष्यायणेमुष्याः पुत्रे दुःष्वप्न्यं मृजे ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । अहम् । आमुष्यायणे । अमुष्या: । पुत्रे । दु:ऽस्वप्न्यम् । मृजे ॥७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(अहम्) मैं राजा या न्यायधीश (आमुष्यायणे) अमुकगोत्र और अमुक पिता के, तथा (अमुष्याः) उस माता के (पुत्रे) पुत्र में वर्तमान (इदम्, दुष्वप्न्यम्) इस दुष्वप्न्य को (मृजे) दण्ड विधान की परिमार्जन विधि१ द्वारा परिमार्जित करता हूं।
टिप्पणी -
[राजा या न्यायाधीश जब किसी अपराधी को दण्ड देने लगे तो वह सुनियन्ता तथा सर्वद्रष्टा परमेश्वर का ध्यान कर दण्ड की व्यवस्था करे, पक्षपात या बदला लेने आदि कारणों से प्रेरित होकर दण्ड की व्यवस्था न करे। तथा दण्ड की व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये अपराधी की शुद्धि। दुष्वप्न्य दो प्रकार के होते हैं, - जाग्रद् दुष्वप्न्य तथा. स्वप्ने दुष्वप्न्यम् (सूक्त ६, मन्त्र ९)। 'जाग्रद् दुष्वप्न्य' है जाग्रद् अवस्था में किये गए द्वेष आदि के कुविचार, कुसंकल्प। राजव्यवस्था जाग्रद्-दुष्वप्न्य को नियन्त्रित करती है। इस द्वारा जब व्यक्ति शुद्ध हो जाते हैं तो स्वप्नावस्था के दुष्वप्न्य भी उन के धुलने लग जाते हैं। अपराधी के पहिचान के लिये उस के गोत्र (जात), पिता, तथा माता का नाम साथ होना चाहिये। वर्तमान में परिचय के लिये माता का नाम आवश्यक नहीं समझा जाता। माता का नाम साथ होने का वैदिक विधान, माता की वैदिक सामाजिक स्थिति का सूचक है] [१. यह प्रायश्चित तथा व्रत विधान आदि की विधि है।]