अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - आर्ची उष्णिक्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
योस्मान्द्वेष्टि॒ तमा॒त्मा द्वे॑ष्टु॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः स आ॒त्मानं॑ द्वेष्टु॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । तम् । आ॒त्मा । द्वे॒ष्टु॒ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । आ॒त्मान॑म् । द्वे॒ष्टु॒ ॥७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
योस्मान्द्वेष्टि तमात्मा द्वेष्टु यं वयं द्विष्मः स आत्मानं द्वेष्टु॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्मान् । द्वेष्टि । तम् । आत्मा । द्वेष्टु । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । आत्मानम् । द्वेष्टु ॥७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
अथवा (यः) जो द्वेष्टा और शप्ता आदि (अस्मान्) हम प्रजाजनों के साथ (द्वेष्टि) द्वेष करता है (तम्) उस के साथ (आत्मा) उस की निज आत्मा (द्वेष्टु) द्वेष करने लगे, और (यम्) जिस प्रजाद्वेष्टा के साथ (वयम्) हम प्रजाजन (द्विष्मः) द्वेष करते हैं (सः) वह (आत्मानम्) अपने-आप के साथ (द्वेष्टु) स्वयं द्वेष करने लगे।
टिप्पणी -
[मन्त्र ४ में "अनेव" द्वारा कठोर-विधि से भिन्न-विधि का निर्देश किया है, अपराधी को अपराध से हटाने के लिये। यह शिक्षा की विधि है। अपराधी को बन्दीकृत कर, उस की नैतिक तथा आत्मिक-शिक्षा के द्वारा उस की आत्मा को जागरित कर पवित्र करना चाहिये, ताकि द्वेष्टा की आत्मा द्वेष्टा के साथ स्वयं द्वेष करने लगे, और द्वेष्टा का सुधार इस विधि से हो जाय। या शिक्षा के कारण द्वेष्टा यह समझने लग जाये कि प्रजाजनों का बहुपक्ष जिस कर्म को बुरा समझता है उस कर्म का त्याग वह स्वयं कर दे, अर्थात् उस कर्म को घृणित जान कर वह उसे अपने-आप त्याग दे। यह शिक्षा विधि भी दंष्ट्रारूप है। क्योंकि यह विधि अपराधी के अपराध को तो पीस देती है, परन्तु उस के व्यक्तित्व को नहीं पीसती।