अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - साम्नी बृहती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
निर्द्वि॒षन्तं॑दि॒वो निः पृ॑थि॒व्या निर॒न्तरि॑क्षाद्भजाम ॥
स्वर सहित पद पाठनि: । द्वि॒षन्त॑म् । दि॒व: । नि: । पृ॒थि॒व्या: । नि: । अ॒न्तरि॑क्षात् । भ॒जा॒म॒ ॥७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्द्विषन्तंदिवो निः पृथिव्या निरन्तरिक्षाद्भजाम ॥
स्वर रहित पद पाठनि: । द्विषन्तम् । दिव: । नि: । पृथिव्या: । नि: । अन्तरिक्षात् । भजाम ॥७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
अथवा (द्विषन्तम्) द्वेष करने वाले का (दिवः) द्यूलोक के ताप-प्रकाश से (निर् भजाम) हम प्रजाजन भागरहित कर देते है, (पृथिव्याः) राष्ट्र की भूमि में स्वच्छन्द विचरने से (निः -) हम भाग रहित कर देते हैं, (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष की खुली और स्वच्छ वायु के सेवन से (निः -) हम भाग रहित कर देते हैं।
टिप्पणी -
[अपराधी को दण्ड देने की यह भी विधि है कि उसे बन्दीकृत कर के उपर्युक्त अधिकारों से वञ्चित कर दिया जाय। मन्त्र में "भजाम" पद बहुवचन में है। इस द्वारा प्रजाजनों के बहुमत को सूचित किया है-अपराधी को अपराधानुसार दण्ड की व्यवस्था में। राजसभाओं की नियमों के निर्माण में प्रजाजनों के बहुमत की स्वीकृति, साक्षात् या प्रतिनिधियों द्वारा, होनी आवश्यक है]