अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 13
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - आसुरी त्रिष्टुप्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
स मा जी॑वी॒त्तंप्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठस: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥७.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
स मा जीवीत्तंप्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठस: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥७.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(सः) वह दुःष्वप्न्य (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे, न पुनः प्राण धारण कर सके, (तम्) उसे (प्राणः) उस का प्राण (जहातु) परित्यक्त कर दे ||१३||
टिप्पणी -
[मन्त्रों में दुष्वप्न्य की पौर्वकालिक विद्यमानता का वर्णन कर, उस के उद्भव कालों का वर्णन हुआ है; व्यक्ति अपने-आप को उस दुष्वप्न्य को छोड़ने और उससे अपने-आप को सुरक्षित करने का दृढ़ संकल्प करता है, और अपने पुत्र को निज दुःस्वप्नों की समाप्ति द्वारा सुखी और प्रसन्न रहने के लिए प्रेरित करता है। दुःष्वप्नों के विनाश से दुष्वप्न्य अर्थात् दुःस्वप्नों के दुष्परिणाम स्वयमेव विनष्ट हो जाते हैं। दुःस्वप्नों की पृष्ठभूमि है कुविचार तथा अशिवसंकल्प आदि। इसी पृष्ठभूमि से दुःष्वप्न उपजते हैं। अव दये = दय् = दान गति, रक्षण, हिंसा, आदान। जहि = मन्त्रों में आनुवंशिक दुष्वप्न्य का वर्णन प्रतीत होता है, अतः “जहि" द्वारा पिता का कथन पुत्र के प्रति सम्भावित है। 'यद् जाग्रद् यद् दिवा' द्वारा जाग्रद दुष्वप्न्य का भी वर्णन इन मन्त्रों में हुआ है (१६।२।६।९)]