अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - आसुरी उष्णिक्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
वै॑श्वान॒रस्यै॑नं॒ दंष्ट्र॑यो॒रपि॑ दधामि ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒रस्य॑ । ए॒न॒म् । दंष्ट्र॑यो: । अपि॑ । द॒ध्या॒मि॒ ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरस्यैनं दंष्ट्रयोरपि दधामि ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानरस्य । एनम् । दंष्ट्रयो: । अपि । दध्यामि ॥७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(एनम्) इस द्वेष्टा-शप्ता आदि को (वैश्वानरस्य) सब नर-नारियों के हितकारी राजा के (दंष्ट्रयोः१) दंष्ट्राओं के समान पीस देने वाले उग्र नियमों में (अपि दधामि) भी मैं स्थापित करता हूं। अपिदधामि = अथवा बन्द करता हूं कारागार में।
टिप्पणी -
[वैश्वानरस्य = राजा का कर्तव्य है कि वह प्रजा के नर-नारियों के हित के लिये कानून बनाएं, और कानून के अनुसार नैतिक भ्रष्टाचारों को दण्डित करे। ये कानून सिंह की दंष्ट्राओं के समान भ्रष्टाचारों के लिये घोर और क्रूर होने चाहियें। (अपि दधामि) अपिधान = पिधान = बन्द कर देना। मन्त्र में राजा के न्यायाधीश की उक्ति प्रतीत होती है। दंष्ट्रव्योः में द्विवचन है। अभिप्राय है नियम और व्यवस्था, Law and Order] [१. दंष्ट्रयोः = अथवा पोलिस (राजपुरुष) और सेना -ये दोनों राजदंष्ट्राएं हैं।]