अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
दे॒वाना॑मेनंघो॒रैः क्रू॒रैः प्रै॒षैर॑भि॒प्रेष्या॑मि ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । ए॒न॒म् । घो॒रै: । क्रू॒रै: । प्र॒ऽए॒षै: । अ॒भि॒ऽप्रेष्या॑मि ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानामेनंघोरैः क्रूरैः प्रैषैरभिप्रेष्यामि ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । एनम् । घोरै: । क्रूरै: । प्रऽएषै: । अभिऽप्रेष्यामि ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(एनम्) इस द्वेष्टा और शप्ता आदि को, (देवानाम्) देवों की (घोरैः१) घातक तथा (क्रूरैः) छेदने वाली (प्रैषैः) आज्ञाओं द्वारा (अभि प्रेष्यामि) मैं सन्मार्ग के लिये प्रेरित करता हूं।
टिप्पणी -
[घौरैः = हन्तेरच् घुर् च (उणा० ५।६४)। क्रूरैः = कृत् छेदने "कृतेश्छः क्रूच" (उणा० २।२१)। देवानाम् = दिव्य राज्याधिकारियों की न कि अदिव्यों की आज्ञाएं। प्रैषै = प्रेष An order, command (आप्टे)। अभिप्रेष्यामि = अभि + प्र + इष् (गतौ) प्रेरित करता हूं। अथवा देवों की आज्ञाओं के साथ, इस द्वेष्टा, शप्ता के सुधार के लिये मैं राजा, इन के प्रति राजपुरुषों को भेजता२ हूं] [१. मनुस्मृति ७।२४ में "यत्र श्यामो लोयिताक्षो दण्डश्चरति पापहा' द्वारा राजदण्ड को "कृष्णवर्ण, रक्तनेत्र" कह कर इसे भयङ्कर सूचित किया है। मन्त्र में राजदण्ड के प्रैषों को इसी भावना में घौरैः और क्रूरैः शब्दों द्वारा निर्दिष्ट किया है। २. इस अर्थ में "एनम्, अभिः प्रेष्यामि" – ऐसा अन्वय जानना चाहिये। एनमभि = इस द्वेष्टा तथा शप्ता के प्रति या ओर, राजपुरुषों (Police) को भेजता हूं।]