अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 10
म॑हान॒ग्नी कृ॑कवाकं॒ शम्य॑या॒ परि॑ धावति। अ॒यं न॑ वि॒द्म यो मृ॒गः शी॒र्ष्णा ह॑रति॒ धाणि॑काम् ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हा॒न् । अ॒ग्नी इति॑ । कृ॑कवाक॒म् । शम्य॑या॒ । परि॑ । धावति ॥ अ॒यम् । न । वि॒द्म । य: । मृ॒ग॒: । शी॒र्ष्णा । ह॑रति॒ । धाणिकम् ॥१३६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
महानग्नी कृकवाकं शम्यया परि धावति। अयं न विद्म यो मृगः शीर्ष्णा हरति धाणिकाम् ॥
स्वर रहित पद पाठमहान् । अग्नी इति । कृकवाकम् । शम्यया । परि । धावति ॥ अयम् । न । विद्म । य: । मृग: । शीर्ष्णा । हरति । धाणिकम् ॥१३६.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(महानग्नी) महा-अपठिता पत्नी, (कृकवाकम्) पुरुष बोली बोलने वाले पति की ओर, (शम्यया) उसे शान्त करनेवाली लाठी लेकर, (परि धावति) इधर-उधर दौड़ती है, और कहती है कि (न विद्म) हम नही जानतीं कि (अयम्) यह कौन (मृगः) जङ्गली पशु है, (यः) जो कि (शीर्ष्णा) सिर पर (धानिकाम्) धान का गठ्ठर रखे (हरति) ला रहा है।
टिप्पणी -
[कृकवाकु=कड़कती वाणीवाला। धाणिकाम्=मन्त्र ९ में अन्नविभाजन का वर्णन है।]