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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 5
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    म॑हान॒ग्न्यतृप्नद्वि॒ मोक्र॑द॒दस्था॑नासरन्। शक्ति॑का॒नना॑ स्वच॒मश॑कं सक्तु॒ पद्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हा॒न् । अ॒ग्नी इत‍ि॑ । अ॑तृप्नत् । वि । मोक्र॑द॒त् । अस्था॑ना । आसरन् ॥ श॑क्तिका॒नना: । स्व॑च॒मश॑कम् । सक्तु॒ । पद्य॑म् ॥१३६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महानग्न्यतृप्नद्वि मोक्रददस्थानासरन्। शक्तिकानना स्वचमशकं सक्तु पद्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । अग्नी इत‍ि । अतृप्नत् । वि । मोक्रदत् । अस्थाना । आसरन् ॥ शक्तिकानना: । स्वचमशकम् । सक्तु । पद्यम् ॥१३६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 5

    भाषार्थ -
    (महानग्नी) महा अपठिता अर्थात् महामूर्खा स्त्री (अतृप्नत्) क्रोध में सन्दीप्त रहती है, और (मा) मुझ पति के प्रति, (उ) निश्चय से (विक्रदत्) क्रोध के विविध वचन बोलती रहती है, और (अस्थानासरन्) अस्थान में, जहाँ कि उसे नहीं जाना चाहिए वहां, चली जाती है। वह (शक्तिकानना) अव्यवस्थित शक्तियों का मानो जङ्गल होती है, (स्वचम्) और अपनी शक्तियों को खाती रहती है, कमजोर करती जाती है, (अशकम्) और शक्तिहीन होती जाती है, और (सक्तु) सत्तुओं की तरह (पद्यम) अपने हठों में लगी रहती है, चिपकी रहती है।

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