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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 15
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    म॒हान्वै॑ भ॒द्रो बि॒ल्वो म॒हान्भ॑द्र उदु॒म्बरः॑। म॒हाँ अ॑भि॒क्त बा॑धते मह॒तः सा॑धु खो॒दन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान् । वै । भ॒द्र: । बि॒ल्व: । म॒हान् । भ॑द्र: । उदु॒म्बर॑: ॥ म॒हान् । अ॑भि॒क्त । बा॑धते । मह॒त: । सा॑धु । खो॒दन॑म् ॥१३६.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महान्वै भद्रो बिल्वो महान्भद्र उदुम्बरः। महाँ अभिक्त बाधते महतः साधु खोदनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । वै । भद्र: । बिल्व: । महान् । भद्र: । उदुम्बर: ॥ महान् । अभिक्त । बाधते । महत: । साधु । खोदनम् ॥१३६.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 15

    भाषार्थ -
    पति के प्रति अन्य लोग (परे, १३) कहते हैं कि (महान्) गृहस्थ-जीवन में जो बड़ा होता है, वह (वै) निश्चय से, (बिल्वः) बिल्व के सदृश (भद्रः) कल्याणकारी और सुखदायी होता है, (महान्) गृहस्थ में बड़ा ही (उदुम्बरः) गूलर के सदृश (भद्रः) कल्याणकारी और सुखदायी होता है। (अभिक्त) हे गृहस्थ-प्राप्त पति! (महान्) गृहस्थ में बड़ा ही (बाधते) गृहस्थ के कष्टों को दूर करता है। (महतः) गृहस्थ में बड़े को ही (साधु) अच्छे प्रकार से (खोदनम्) कमाई आदि कामों में पिसना होता है। [अभिक्त=अभिगत, प्राप्त।]

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