अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 13
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
व॒शा द॒ग्धामि॑माङ्गु॒रिं प्रसृ॑जतो॒ग्रतं॑ परे। म॒हान्वै भ॒द्रो यभ॒ माम॑द्ध्यौद॒नम् ॥
स्वर सहित पद पाठवशा । द॒ग्धाम्ऽइ॒म । अङ्गुरिम् । प्रसृ॑जत । उ॒ग्रत॑म् । परे ॥ म॒हान् । वै । भ॒द्र: । यभ॒ । माम् । अ॑द्धि । औद॒नम् ॥१३६.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
वशा दग्धामिमाङ्गुरिं प्रसृजतोग्रतं परे। महान्वै भद्रो यभ मामद्ध्यौदनम् ॥
स्वर रहित पद पाठवशा । दग्धाम्ऽइम । अङ्गुरिम् । प्रसृजत । उग्रतम् । परे ॥ महान् । वै । भद्र: । यभ । माम् । अद्धि । औदनम् ॥१३६.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(परे) अन्य लोग, (अग्र=अग्रम्) घर के अग्रणी (तम्) उस पति को कहते हैं, कि (दग्धाम् इम् अंगुरीम्) जली हुई अङ्गुली के सदृश दुःखिया इस पत्नी को, (प्र सृजत) तुम घरवाले छोड़ दो, इसे तंग न करो। (वशा) यह तो सदा तुम्हारे वश में है। क्योंकि (महान्) घर में बड़े को, (वै) निश्चय से, (भद्रः) भद्र व्यवहारोंवाला होना चाहिए। पत्नी खुश होकर कहने लगती है कि हे पति! (मां यभ) मेरे साथ तू गृहस्थधर्म का पालन कर। और मुझ द्वारा (ओदनम्) पकाये गये भात को (आ अद्धि) प्रसन्नतपूर्वक खाया कर।