अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 4
यद्दे॒वासो॑ ललामगुं॒ प्रवि॑ष्टी॒मिन॑माविषुः। स॑कु॒ला दे॑दिश्यते॒ नारी॑ स॒त्यस्या॑क्षि॒भुवो॒ यथा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । दे॒वास॑ । ल॒लाम॑ऽगुम् । प्र । वि॒ष्टी॒मिन॑म् । आवि॑षु: ॥ स॒कु॒ला । दे॒दि॒श्य॒ते॒ । नारी॑ । स॒त्यस्य॑ । अ॑क्षि॒भुव॑: । य॒था॒ ॥१३६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्देवासो ललामगुं प्रविष्टीमिनमाविषुः। सकुला देदिश्यते नारी सत्यस्याक्षिभुवो यथा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । देवास । ललामऽगुम् । प्र । विष्टीमिनम् । आविषु: ॥ सकुला । देदिश्यते । नारी । सत्यस्य । अक्षिभुव: । यथा ॥१३६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(इनम्) इस गृहस्थाश्रम में (प्रविष्टीम्) प्रविष्ट हुई (ललामगुम्) प्रशस्त इन्द्रियोंवाली तथा व्यवहारोंवाली वधू की—(देवासः यद्) श्वशुरगृह के देव अर्थात् पति, श्वशुर सास आदि जब (आविषुः) रक्षा करते हैं, तब (नारी) विवाहिता स्त्री (सकुला) कुलवाली हो गई है—ऐसा (देदिश्यते) निर्दिष्ट कर दिया जाता है—यह ऐसी सच्चाई है (यथा) जैसे कि (अक्षिभुवः) आखोंदृष्ट (सत्यस्य) सच्चाई का निर्देश किया जाता है।