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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृत् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    तेजो॑ऽसि शु॒क्रम॒मृत॑मायु॒ष्पाऽआयु॑र्मे पाहि। दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्या॒माद॑दे॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तेजः॑। अ॒सि॒। शु॒क्रम्। अ॒मृत॑म्। आ॒यु॒ष्पाः। आ॒युः॒पा इत्या॑युः॒ऽपाः। आयुः॑। मे॒। पा॒हि॒। दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेजोसि शुक्रममृतमायुष्पाऽआयुर्मे पाहि । देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्यामाददे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तेजः। असि। शुक्रम्। अमृतम्। आयुष्पाः। आयुःपा इत्यायुःऽपाः। आयुः। मे। पाहि। देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! मैं (देवस्य) सब के प्रकाश करने (सवितुः) और समस्त जगत् के उत्पन्न करने हारे जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये जिसमें कि प्राणी आदि उत्पन्न होते उस संसार में (अश्विनोः) पवन और बिजुली रूप आग के धारण और खैंचने आदि गुणों के समान (बाहुभ्याम्) भुजाओं और (पूष्णः) पुष्टि करनेवाले सूर्य की किरणों के समान (हस्ताभ्याम्) हाथों से जिस (त्वा) तुझे (आददे) ग्रहण करता हूं वा जो तू (अमृतम्) स्व-स्वरूप से विनाशरहित (शुक्रम्) वीर्य्य और (तेजः) प्रकाश के समान जो (आयुष्पाः) आयुर्दा की रक्षा करने वाला (असि) है, सो तू अपनी दीर्घ आयुर्दा कर के (मे) मेरी (आयुः) आयु की (पाहि) रक्षा कर॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शरीर में रहने वाली बिजुली शरीर की रक्षा करती वा जैसे बाहरले सूर्य और पवन जीवन के हेतु हैं, वैसे ईश्वर के बनाये इस जगत् में आप्त अर्थात् सकल शास्त्र का जानने वाला विद्वान् होता है, यह सब को जानना चाहिये॥१॥

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