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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 15
    ऋषिः - सुतम्भर ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
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    अ॒ग्निꣳ स्तोमे॑न बोधय समिधा॒नोऽअम॑र्त्यम्। ह॒व्या दे॒वेषु॑ नो दधत्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। स्तोमे॑न। बो॒ध॒य॒। स॒मि॒धा॒न इति॑ सम्ऽइधा॒नः। अम॑र्त्यम्। ह॒व्या। दे॒वेषु॑। नः॒। द॒ध॒त्॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निँ स्तोमेन बोधय समिधानोऽअमर्त्यम् । हव्या देवेषु नो दधत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। स्तोमेन। बोधय। समिधान इति सम्ऽइधानः। अमर्त्यम्। हव्या। देवेषु। नः। दधत्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जो (समिधानः) भलीभांति दीपता हुआ अग्नि (देवेषु) दिव्य वायु आदि पदार्थों में (हव्या) लेने-देने योग्य पदार्थों को (नः) हमारे लिये (दधत्) धारण करता है, उस (अमर्त्यम्) कारणरूप अर्थात् परमाणुभाव से विनाश होने के धर्म से रहित (अग्निम्) आग को (स्तोमेन) इन्धनसमूह से (बोधय) चिताओ अर्थात् अच्छे प्रकार जलाओ॥१५॥

    भावार्थ - यदि अग्नि में समिधा छोड़ दिव्य-दिव्य सुगन्धित पदार्थ को होमें तो यह अग्नि उस पदार्थ को वायु आदि में फैला के सब प्राणियों को सुखी करता है॥१५॥

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