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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इ॒माम॑गृभ्णन् रश॒नामृ॒तस्य॒ पूर्व॒ऽआयु॑षि वि॒दथे॑षु क॒व्या। सा नो॑ऽअ॒स्मिन्त्सु॒तऽआब॑भूवऽऋ॒तस्य॒ साम॑न्त्स॒रमा॒रप॑न्ती॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम्। अ॒गृ॒भ्ण॒न्। र॒श॒नाम्। ऋ॒तस्य॑। पूर्वे॑। आयु॑षि। वि॒दथे॑षु। क॒व्या। सा। नः॒। अ॒स्मिन्। सु॒ते। आ। ब॒भू॒व॒। ऋ॒तस्य॑। साम॑न्। स॒रम्। आ॒रप॒न्तीत्या॒ऽरप॑न्ती ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमामगृभ्णन्रशनामृतस्य पूर्व आयुषि विदथेषु कव्या । सा नोऽअस्मिन्त्सुत आऽबभूवऽऋतस्य सामन्त्सरमारपन्ती ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम्। अगृभ्णन्। रशनाम्। ऋतस्य। पूर्वे। आयुषि। विदथेषु। कव्या। सा। नः। अस्मिन्। सुते। आ। बभूव। ऋतस्य। सामन्। सरम्। आरपन्तीत्याऽरपन्ती॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 2
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जो (ऋतस्य) सत्य कारण के (सरम्) पाने योग्य शब्द को (आरपन्ती) अच्छे प्रकार प्रगट बोलती हुई (आ, बभूव) भलीभांति विख्यात होती वा जिस (इमाम्) इस को (ऋतस्य) सत्यकारण की (रशनाम्) व्याप्त होने वाली डोर के समान (विदथेषु) यज्ञादिकों में (पूर्वे) पहिली (आयुषि) प्राणधारण करनेहारी आयुर्दा के निमित्त (कव्या) कवि मेधावी जन (अगृभ्णन्) ग्रहण करें (सा) वह बुद्धि (अस्मिन्) इस (सुते) उत्पन्न हुए जगत् में (नः) हम लोगों के (सामन्) अन्त के काम में प्रसिद्ध होती अर्थात् कार्य की समाप्ति पर्य्यन्त पहुँचाती है॥२॥

    भावार्थ - जैसे डोर से बंधे हुए प्राणी इधर-उधर भाग नहीं जा सकते, वैसे युक्ति के साथ धारण की हुई आयु ठीक समय के बिना नहीं भाग जाती॥२॥

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