यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - प्राणादयो देवताः
छन्दः - निचृदत्यष्टिः, स्वराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
8
हि॒ङ्का॒राय॒ स्वाहा॒ हिङ्कृ॑ताय॒ स्वाहा॒ क्रन्द॑ते॒ स्वाहा॑ऽवक्र॒न्दाय॒ स्वाहा॒ प्रोथ॑ते॒ स्वाहा॑ प्रप्रो॒थाय॒ स्वाहा॑ ग॒न्धाय॒ स्वाहा॑ घ्रा॒ताय॒ स्वाहा॒ निवि॑ष्टाय॒ स्वाहोप॑विष्टाय॒ स्वाहा॒ सन्दि॑ताय॒ स्वाहा॒ वल्ग॑ते॒ स्वाहासी॑नाय॒ स्वाहा॒ शया॑नाय॒ स्वाहा॒ स्वप॑ते॒ स्वाहा॒ जाग्र॑ते॒ स्वाहा॒ कूज॑ते॒ स्वाहा॒ प्रबु॑द्धाय॒ स्वाहा॑ वि॒जृम्भ॑माणाय॒ स्वाहा॒ विचृ॑ताय॒ स्वाहा॒ सꣳहा॑नाय॒ स्वाहोप॑स्थिताय॒ स्वाहाऽय॑नाय॒ स्वाहा॒ प्राय॑णाय॒ स्वाहा॑॥७॥
स्वर सहित पद पाठहिं॒का॒रायेति॑ हिम्ऽका॒राय॑। स्वाहा॑। हिं॑कृता॒येति॒ हिम्ऽकृ॑ताय। स्वाहा॑। क्रन्द॑ते। स्वाहा॑। अ॒व॒क॒न्दायेत्य॑वऽक्र॒न्दाय॑। स्वाहा॑। प्रोथ॑ते। स्वाहा॑। प्र॒प्रो॒थायेति॑ प्रऽप्रो॒थाय॑। स्वाहा॑। ग॒न्धाय॑। स्वाहा॑। घ्रा॒ताय॑। स्वाहा॑। निवि॑ष्टायेति॒ निऽवि॑ष्टाय। स्वाहा॑। उप॑विष्टा॒येत्युप॑ऽविष्टाय। स्वाहा॑। सन्दि॑ता॒येति॒ सम्ऽदि॑ताय। स्वाहा॑। वल्ग॑ते। स्वाहा॑। आसी॑नाय। स्वाहा॑। शया॑नाय। स्वाहा॑। स्वप॑ते। स्वाहा॑। जाग्र॑ते। स्वाहा॑। कूज॑ते। स्वाहा॑। प्रबु॑द्धायेति॒ प्रऽबु॑द्धाय। स्वाहा॑। वि॒जृम्भ॑माणा॒येति॑ वि॒ऽजृम्भ॑माणाय। स्वाहा॑। विचृ॑ता॒येति॒ विऽचृ॑ताय। स्वाहा॑। सꣳहाना॒येति॒ सम्ऽहा॑नाय। स्वाहा॑। उप॑स्थिता॒येत्युप॑ऽस्थिताय। स्वाहा॑। आय॑ना॒येत्या॒ऽअय॑नाय। स्वाहा॑। प्राय॑णाय। प्राय॑ना॒येति॑ प्र॒ऽअ॑यनाय। स्वाहा॑ ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिङ्काराय स्वाहा हिङ्कृताय स्वाहा क्रन्दते स्वाहावक्रन्दाय स्वाहा प्रोथते स्वाहा प्रप्रोथाय स्वाहा गन्धाय स्वाहा घ्राताय स्वाहा निविष्टाय स्वाहोपविय स्वाहा सन्दिताय स्वाहा वल्गते स्वाहासीनाय स्वाहा शयानाय स्वाहा स्वपते स्वाहा जाग्रते स्वाहा कूजते स्वाहा प्रबुद्धाय स्वाहा विजृम्भमाणाय स्वाहा विचृत्ताय स्वाहा सँहानाय स्वाहोपस्थिताय स्वाहायनाय स्वाहा प्रायणाय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
हिंकारायेति हिम्ऽकाराय। स्वाहा। हिंकृतायेति हिम्ऽकृताय। स्वाहा। क्रन्दते। स्वाहा। अवकन्दायेत्यवऽक्रन्दाय। स्वाहा। प्रोथते। स्वाहा। प्रप्रोथायेति प्रऽप्रोथाय। स्वाहा। गन्धाय। स्वाहा। घ्राताय। स्वाहा। निविष्टायेति निऽविष्टाय। स्वाहा। उपविष्टायेत्युपऽविष्टाय। स्वाहा। सन्दितायेति सम्ऽदिताय। स्वाहा। वल्गते। स्वाहा। आसीनाय। स्वाहा। शयानाय। स्वाहा। स्वपते। स्वाहा। जाग्रते। स्वाहा। कूजते। स्वाहा। प्रबुद्धायेति प्रऽबुद्धाय। स्वाहा। विजृम्भमाणायेति विऽजृम्भमाणाय। स्वाहा। विचृतायेति विऽचृताय। स्वाहा। सꣳहानायेति सम्ऽहानाय। स्वाहा। उपस्थितायेत्युपऽस्थिताय। स्वाहा। आयनायेत्याऽअयनाय। स्वाहा। प्रायणाय। प्रायनायेति प्रऽअयनाय। स्वाहा॥७॥
विषय - फिर मनुष्यों को जगत् कैसे शुद्ध करना चहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जिन मनुष्यों ने (हिंकाराय) जो हिं ऐसा शब्द करता है, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (हिंकृताय) जिसने हिं शब्द किया उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (क्रन्दते) बुलाते वा रोते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (अवक्रन्दाय) नीचे होकर बुलाने वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रोथते) सब कर्मों में परिपूर्ण के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रप्रोथाय) अत्यन्त पूर्ण के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (गन्धाय) सुगन्धित के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (घ्राताय) जो सूंघा गया उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (निविष्टाय) जो निरन्तर प्रवेश करता बैठता है, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (उपविष्टाय) जो बैठता उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (संदिताय) जो भलीभांति दिया जाता उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (वल्गते) जाते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आसीनाय) बैठे हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (शयानाय) सोते हुए के लिए (स्वाहा) उत्तम क्रिया (स्वपते) नींद जिस को प्राप्त हुई उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (जाग्रते) जागते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (कूजते) कूजते हुए के लिए (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रबुद्धाय) उत्तम ज्ञान वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विजृम्भमाणाय) अच्छे प्रकार जंभाई लेने के लिए (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विचृताय) विशेष रचना करने वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (संहानाय) जिससे संघात पदार्थों का समूह किया जाता, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (उपस्थिताय) समीपस्थित हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आयनाय) अच्छे प्रकार विशेष ज्ञान के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया तथा (प्रायणाय) पहुंचाने हारे के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया की, उन मनुष्यों को दुःख छूट के सुख प्राप्त होते हैं॥७॥
भावार्थ - मनुष्यों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ में जितना होम किया जाता है, उतना सब प्राणियों के लिये सुख करने वाला होता है॥७॥
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