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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 17
    ऋषिः - विश्वरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अ॒ग्निं दू॒तं पु॒रो द॑धे हव्य॒वाह॒मुप॑ब्रुवे।दे॒वाँ२ऽआ सा॑दयादि॒ह॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। दू॒तम्। पु॒रः। द॒धे॒। ह॒व्य॒वाह॒मिति॑ हव्य॒ऽवाह॑म्। उप॑। ब्रु॒वे॒। दे॒वान्। आ। सा॒द॒या॒त्। इ॒ह ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निन्दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे । देवाँऽआसादयादिह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। दूतम्। पुरः। दधे। हव्यवाहमिति हव्यऽवाहम्। उप। ब्रुवे। देवान्। आ। सादयात्। इह॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जो (इह) इस संसार में (देवान्) दिव्य भोगों को (आ, सादयात्) प्राप्त करावे, उस (हव्यवाहम्) भोजन करने योग्य पदार्थों की प्राप्ति कराने और (दूतम्) दूत के समान कार्य्यसिद्धि करनेहारे (अग्निम्) अग्नि को (पुरः) आगे (दधे) धरता हूँ और तुम लोगों के प्रति (उप, ब्रुवे) उपदेश करता हूँ कि तुम लोग भी ऐसे ही किया करो॥१७॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! जैसे अग्नि दिव्य सुखों को देने वाला है, वैसे पवन आदि पदार्थ भी सुख देने में प्रवर्त्तमान हैं, यह जानना चाहिये॥१७॥

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