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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    7

    त्रीणि॑ तऽआहुर्दि॒वि बन्ध॑नानि॒ त्रीण्य॒प्सु त्रीण्य॒न्तः स॑मु॒द्रे।उ॒तेव॑ मे॒ वरु॑णश्छन्त्स्यर्व॒न् यत्रा॑ तऽआ॒हुः प॑र॒मं ज॒नित्र॑म्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑। ते॒। आ॒हुः॒। दि॒वि। बन्ध॑नानि। त्रीणि॑। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। त्रीणि॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः। स॒मु॒द्रे। उ॒तेवेत्यु॒तऽइ॑व। मे॒। वरु॑णः। छ॒न्त्सि॒। अ॒र्व॒न्। यत्र॑। ते॒। आ॒हुः। प॒र॒मम्। ज॒नित्र॑म् ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि तऽआहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे । उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन्यत्रा तऽआहुः परमञ्जनित्रम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि। ते। आहुः। दिवि। बन्धनानि। त्रीणि। अप्स्वित्यप्ऽसु। त्रीणि। अन्तरित्यन्तः। समुद्रे। उतेवेत्युतऽइव। मे। वरुणः। छन्त्सि। अर्वन्। यत्र। ते। आहुः। परमम्। जनित्रम्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -
    हे (अर्वन्) विज्ञानयुक्त विद्वान् जन! (यत्र) जिस (दिवि) विद्या के प्रकाश में (ते) आप के (त्रीणि) तीन (बन्धनानि) बन्धनों को विद्वान् लोग (आहुः) कहते हैं, जहां (अप्सु) प्राणों में (त्रीणि) तीन जहां (अन्तः) बीच में और (समुद्रे) अन्तरिक्ष में (त्रीणि) तीन बन्धनों को (आहुः) कहते हैं और (ते) आप के (परमम्) उत्तम (जनित्रम्) जन्म को कहते हैं, जिससे (वरुणः) श्रेष्ठ हुए विद्वानों का (छन्त्सि) सत्कार करते हो (उतेव) उत्प्रेक्षा के तुल्य वे सब (मे) मेरे होवें॥१५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! आत्मा, मन और शरीर में ब्रह्मचर्य के साथ विद्याओं में नियत होके विद्या और सुशिक्षा का संचय करो। द्वितीय विद्याजन्म को पाकर पूजित होवो, जिस जिस के साथ अपना सम्बन्ध है, उस को जानो॥१५॥

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