यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 50
ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः
देवता - वीरा देवताः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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आ ज॑ङ्घन्ति॒ सान्वे॑षां ज॒घनाँ॒२ऽउप॑ जिघ्नते।अश्वा॑जनि॒ प्रचे॑त॒सोऽश्वा॑न्त्स॒मत्सु॑ चोदय॥५०॥
स्वर सहित पद पाठआ। ज॒ङ्घ॒न्ति॒। सानु॑। ए॒षा॒म्। ज॒घना॑न्। उप॑। जि॒घ्न॒ते॒। अश्वा॑ज॒नीत्यश्व॑ऽजनि। प्रचे॑तस॒ इति॒ प्रऽचे॑तसः। अश्वा॑न्। स॒मत्स्विति॑ स॒मत्ऽसु॑। चो॒द॒य॒ ॥५० ॥
स्वर रहित मन्त्र
आजङ्घन्ति सान्वेषाञ्जघनाँऽउप जिघ्नते । अश्वाजनि प्रचेतसो श्वान्त्समत्सु चोदय ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। जङ्घन्ति। सानु। एषाम्। जघनान्। उप। जिघ्नते। अश्वाजनीत्यश्वऽजनि। प्रचेतस इति प्रऽचेतसः। अश्वान्। समत्स्विति समत्ऽसु। चोदय॥५०॥
विषय - फिर राजधर्म को कहते हैं॥
पदार्थ -
हे (अश्वाजनि) घोड़ों को शिक्षा देने वाली विदुषि राणी! जैसे वीर पुरुष (एषाम्) इन घोड़े आदि के (सानु) अवयव को (आ, जङ्घन्ति) अच्छे प्रकार शीघ्र ताड़ना करते हैं (जघनान्) ज्वानों को (उप जिघ्नते) समीप से चलाते हैं, वैसे तू (समत्सु) संग्रामों में (प्रचेतसः) शिक्षा से विशेष कर चेतन किये (अश्वान्) घोड़ों को (चोदय) प्रेरणा कर॥५०॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे राजा और राजपुरुष विमानादि रथ और घोड़ों के चलाने तथा युद्ध के व्यवहारों को जानें, वैसे उनकी स्त्रियां भी जानें॥५०॥
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