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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 18
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अत्रा॑ ते रू॒पमु॑त्त॒मम॑पश्यं॒ जिगी॑षमाणमि॒षऽआऽप॒दे गोः।य॒दा ते॒ मर्त्तो॒ऽअनु भोग॒मान॒डादिद् ग्रसि॑ष्ठ॒ऽओष॑धीरजीगः॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑। ते॒। रू॒पम्। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। अ॒प॒श्य॒म्। जिगी॑षमाणम्। इ॒षः। आ। प॒दे। गोः। य॒दा। ते॒। मर्त्तः॑। अनु॑। भोग॑म्। आन॑ट्। आत्। इत्। ग्रसि॑ष्ठः। ओष॑धीः। अ॒जी॒ग॒रित्य॑जीगः ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यञ्जिगीषमाणमिषऽआ पदे गोः । यदा ते मर्ताऽअनु भोगमानडादिद्ग्रसिष्ठऽओषधीरजीगः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र। ते। रूपम्। उत्तममित्युत्ऽतमम्। अपश्यम्। जिगीषमाणम्। इषः। आ। पदे। गोः। यदा। ते। मर्त्तः। अनु। भोगम्। आनट्। आत्। इत्। ग्रसिष्ठः। ओषधीः। अजीगरित्यजीगः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    हे वीर पुरुष! (ते) आप के (जिगीषमाणम्) शत्रुओं को जीतते हुए (उत्तमम्) उत्तम (रूपम्) रूप और (गोः) पृथिवी के (पदे) प्राप्त होने योग्य (अत्र) इस व्यवहार में (इषः) अन्नों के दानों को (आ, अपश्यम्) अच्छे प्रकार देखूं (ते) आपका (मर्त्तः) मनुष्य (यदा) जब (भोगम्) भोग्य वस्तु को (आनट्) व्याप्त होता है, तब (आत्) (इत्) इसके अनन्तर ही (ग्रसिष्ठः) अति खाने वाले हुए आप (औषधीः) औषधियों को (अनु, अजीगः) अनुकूलता से भोगते हो॥१८॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! जैसे उत्तम घोड़े आदि सेना के अङ्ग विजय करने वाले हों, वैसे शूरवीर विजय के हेतु होकर भूमि के राज्य में भोगों को प्राप्त हों॥१८॥

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