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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 13
    सूक्त - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-९२

    आ तू सु॑शिप्र दम्पते॒ रथं॑ तिष्ठा हिर॒ण्यय॑म्। अध॑ द्यु॒क्षं स॑चेवहि स॒हस्र॑पादमरु॒षं स्व॑स्ति॒गाम॑ने॒हस॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । तु । सु॒ऽशि॒प्र॒ । इ॒म्ऽप॒ते॒ । रथ॑म् । ति॒ष्ठ॒ । हि॒र॒ण्यय॑म् ॥ अध॑ । द्यु॒क्षम् । स॒चे॒व॒हि॒ । स॒हस्र॑ऽपादम् । अ॒रु॒षम् । स्व॒स्ति॒ऽगाम् । अ॒ने॒हस॑म् ॥९२.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तू सुशिप्र दम्पते रथं तिष्ठा हिरण्ययम्। अध द्युक्षं सचेवहि सहस्रपादमरुषं स्वस्तिगामनेहसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । तु । सुऽशिप्र । इम्ऽपते । रथम् । तिष्ठ । हिरण्ययम् ॥ अध । द्युक्षम् । सचेवहि । सहस्रऽपादम् । अरुषम् । स्वस्तिऽगाम् । अनेहसम् ॥९२.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 13

    पदार्थ -
    (सुशिप्र) हे बड़े ज्ञानी ! [दम्पते] हे दमनरक्षक [जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी] (हिरण्ययम्) प्रकाशमय [ज्ञानरूपी] (रथम्) रथ पर (तु) शीघ्र (आ तिष्ठ) चढ़। (अध) फिर (द्युक्षम्) व्यवहारों में समर्थ, (सहस्रपादम्) सहस्रों [असीम] गति शक्तिवाले, (अरुधम्) व्यापक (स्वस्तिगाम्) आनन्द पहुँचानेवाले, (अनेहसम्) निर्दोष परमात्मा को (सचेवहि) हम दोनों [आचार्य और ब्रह्मचारी] मिल जावें –॥१३॥

    भावार्थ - जब ब्रह्मचारी ब्रह्मविद्या में पूरी निष्ठा करता है, तब आचार्य और ब्रह्मचारी परमात्मा के आश्रय में पूरा आनन्द पाते हैं ॥१३॥

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