अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 2
आ हर॑यः ससृज्रि॒रेऽरु॑षी॒रधि॑ ब॒र्हिषि॑। यत्रा॒भि सं॒नवा॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । हर॑य: । स॒सृ॒ज्रि॒रे॒ । अरु॑षी: । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ ॥ यत्र॑ । अ॒भि । स॒म्ऽनवा॑महे ॥९२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हरयः ससृज्रिरेऽरुषीरधि बर्हिषि। यत्राभि संनवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । हरय: । ससृज्रिरे । अरुषी: । अधि । बर्हिषि ॥ यत्र । अभि । सम्ऽनवामहे ॥९२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 2
विषय - १-३ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ -
(हरयः) दुःख हरनेवाले मनुष्य (अरुषीः) गतिशील [प्रजाओं] को (बर्हिषि) बढ़ती के स्थान में (अधि) अधिकारपूर्वक (आ ससृज्रिरे) लाये हैं, (यत्र) जहाँ पर [तुझ राजा को] (अभि) सब ओर से (संनवामहे) हम मिलकर सराहते हैं ॥२॥
भावार्थ - जिस राजा की सुनीति से विद्या द्वारा उन्नति होवे, प्रजासहित विद्वान् जन उसके गुणों का गान करें ॥२॥
टिप्पणी -
१-३ व्याख्याताः-अ० २०।२२।४-६ ॥