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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 27
    ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    वा॒य॒व्यैर्वाय॒व्यान्याप्नोति॒ सते॑न द्रोणकल॒शम्। कु॒म्भीभ्या॑मम्भृ॒णौ सु॒ते स्था॒लीभि॑ स्था॒लीरा॑प्नोति॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒य॒व्यैः᳖ वा॒य॒व्या᳖नि। आ॒प्नो॒ति॒। सते॑न। द्रो॒ण॒क॒ल॒शमिति॑ द्रोणऽकल॒शम्। कु॒म्भीभ्या॑म्। अ॒म्भृ॒णौ। सु॒ते। स्था॒लीभिः॑। स्था॒लीः। आ॒प्नो॒ति॒ ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायव्यैर्वायव्यानाप्नोति सतेन द्रोणकलशम् । कुम्भीभ्यामम्भृणौ सुते स्थालीभि स्थालीराप्नोति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वायव्यैः वायव्यानि। आप्नोति। सतेन। द्रोणकलशमिति द्रोणऽकलशम्। कुम्भीभ्याम्। अम्भृणौ। सुते। स्थालीभिः। स्थालीः। आप्नोति॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 27
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    पदार्थ -
    (वायव्यैः) = वायु- सम्बन्धी गुणों के द्वारा, अर्थात् 'वा गतिगन्धयोः' गति के द्वारा बुराइयों को समाप्त करने की वृत्ति से (वायव्यानि) = वायु गुणयुक्त शिष्यों को आप्नोति प्राप्त करता है, विद्यार्थियों को भी वह क्रियाशीलता के द्वारा बुराइयों के ध्वंस की वृत्तिवाला बना पाता है। २. (सतेन) = [सन् संभक्तौ] संभजन व संविभाग से, अर्थात् समय-विभाग के अनुसार कार्य करने से [विभागयुक्त कर्म से द०] अथवा दिनचर्या के ठीक परिपालन से (द्रोणकलशम्) = [द्रोणकलशो यस्य, द्रु गतौ - कलाः शेरते अस्मिन्] गतिशील कलायुक्त शरीरवाले को प्राप्त करता है, अर्थात् ठीक समयविभाग के अनुसार, संविभागपूर्वक समक्रियाओं के करनेवाले आचार्यों के विद्यार्थी भी ठीक क्रियाशील होते हैं और अपने इस शरीर में सब कलाओं का सम्यक् आधान करनेवाले होते हैं। उपनिषद् में वर्णित 'प्राण, श्रद्धा' आदि सब कलाएँ उनके जीवन में आश्रित होती हैं। ३. (कुम्भीभ्याम्) = [ क + उम्य् = क: आनन्द व जल-देवशक्ति] आचार्य से अपने में आनन्दमयता व शक्ति के भरने से (अम्भृणौ) = महान् [अम्भृण इति महन्नाम, निघण्टौ ] व वाणी के पिता (सुते) = उत्पन्न किये जाते हैं [अम्भृण Powerful, great, mighty, master of वाच्] । आचार्य अपनी आनन्दमयता व शक्तिमत्ता से विद्यार्थियों को भी शक्तिसम्पन्न व महान् बनाता है। आचार्य की आनन्दमय मनोवृत्ति विद्यार्थियों को वाणी के ज्ञान का अधिपति बना देती है। ४. (स्थालीभिः) = [स्थल प्रतिष्ठायाम्] प्रतिष्ठा की वृत्तियों से, अर्थात् स्थिररूप से कार्य में लगे रहने की वृत्ति से (स्थाली: आप्नोति) = स्थिर वृत्तिवालों को प्राप्त करता है। आचार्य की स्थिरता विद्यार्थियों में भी स्थिरता को जन्म देती है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम वायु की भाँति क्रियाशील व बुराइयों का संहार करनेवाले बनें, संविभागपूर्वक कार्यों को करते हुए हम गतिशील व षोडशकला सम्पूर्ण देहवाले हों। आनन्दमयता से हम महान् बनें, स्थिरता को अपनाएँ ।

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