यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 56
आहं पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑२ऽअवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑। ब॒र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्तऽइ॒हाग॑मिष्ठाः॥५६॥
स्वर सहित पद पाठआ। अ॒हम्। पि॒तॄन्। सु॒वि॒दत्रा॒निति॑ सुऽवि॒दत्रा॑न्। अ॒वि॒त्सि॒। नपा॑तम्। च॒। वि॒क्रम॑ण॒मिति॑ वि॒ऽक्रम॑णम्। च॒। विष्णोः॑। ब॒र्हि॒षद॒ इति॑ बर्हि॒ऽसदः॑। ये। स्व॒धया॑। सु॒तस्य॑। भज॑न्त। पि॒त्वः। ते। इ॒ह। आग॑मिष्ठा॒ इत्याऽग॑मिष्ठाः ॥५६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आहम्पितऋृन्सुविदत्राँऽअवित्सि नपातञ्च विक्रमणञ्च विष्णोः । बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्तऽइहागमिष्ठाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। अहम्। पितॄन्। सुविदत्रानिति सुऽविदत्रान्। अवित्सि। नपातम्। च। विक्रमणमिति विऽक्रमणम्। च। विष्णोः। बर्हिषद इति बर्हिऽसदः। ये। स्वधया। सुतस्य। भजन्त। पित्वः। ते। इह। आगमिष्ठा इत्याऽगमिष्ठाः॥५६॥
विषय - सुविदत्र पितर
पदार्थ -
१. (अहम्) = मैं (सुविदत्रान्) = उत्तम ज्ञान से रक्षा करनेवाले (पितॄन्) = पितरों को ज्ञानदाता आचार्यों को (अवित्सि) = सर्वथा प्राप्त होऊँ, अर्थात् मुझे 'सुविदत्र' आचार्यों का सङ्ग सदा प्राप्त होता रहे। २. उन आचार्यों से मैं (विष्णोः) = उस सर्वव्यापक प्रभु के (नपातं च) = कभी भी नष्ट न होनेवाले, फिर भी (विक्रमणं च) = विविध क्रमणों को इस वैविध्य से युक्त सृष्टि के क्रम को (आ अवित्सि) = सब प्रकार से समझने का प्रयत्न करूँ। किस प्रकार यह 'सृष्टि-प्रलय' का क्रम अनादिकाल से कभी नष्ट न होता हुआ चलता है । ३. (बर्हिषद:) = वासनाशून्य हृदय में स्थित होनेवाले, अर्थात् जिनका मुख्य लक्ष्य हृदय को वासनाशून्य बनाना है, ये जो (स्वधया) = आत्मज्ञान का धारण करनेवाले, उत्तम सात्त्विक अन्न के साथ (सुतस्य) = अभिषुत-उत्पन्न किये हुए (पित्वः) = [सुगन्धिपानस्य - द०] सुगन्धियुक्त पेय-रस का (भजन्ते) = सेवन करते हैं, अर्थात् जिनका खान-पान अत्यन्त सात्त्विक है, (ते) = वे पितर (इह) = यहाँ हमारे घरों पर (आगमिष्ठाः) = आएँ, हमें उनका सम्पर्क प्राप्त हो ।
भावार्थ - भावार्थ- हमें उन पितरों का, ज्ञानप्रद आचार्यों का सम्पर्क सदा प्राप्त हो जो हमें इस अविनाशी सृष्टि-प्रलय-चक्र का ज्ञान देनेवाले हों और जिनका खान-पान अत्यन्त सात्त्विक है। उत्तम ज्ञान देकर ये हमारा त्राण करते हैं।
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