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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 46
    ऋषिः - वैखानस ऋषिः देवता - श्रीर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ये स॑मा॒नाः सम॑नसो जी॒वा जी॒वेषु॑ माम॒काः। तेषा॒ श्रीर्मयि॑ कल्पता॒मस्मिँल्लो॒के श॒तꣳ समाः॑॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। स॒मा॒नाः। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। जी॒वाः। जी॒वेषु॑। मा॒म॒काः। तेषा॑म्। श्रीः। मयि॑। क॒ल्प॒ता॒म्। अ॒स्मिन्। लो॒के। श॒तम्। समाः॑ ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः । तेषाँ श्रीर्मयि कल्पतामस्मिँलोके सतँसमाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। समानाः। समनस इति सऽमनसः। जीवाः। जीवेषु। मामकाः। तेषाम्। श्रीः। मयि। कल्पताम्। अस्मिन्। लोके। शतम्। समाः॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 46
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    पदार्थ -
    १. (ये) = जो (समाना:) = समान वृत्तिवाले-सब सन्तानों के साथ एक जैसा बर्तनेवाले अथवा 'समानयन्ति' खूब उत्साहित करनेवाले, (जीवाः) = प्राणशक्ति को धारण करनेवाले, (जीवेषु) = जीवित प्राणियों में (मामकाः) = मुझमें ममत्ववाले मेरे पिता-पितामह व प्रपितामह हैं, २. (तेषाम्) = उनकी (श्रीः) = शोभा (मयि) = मुझमें (कल्पताम्) = सिद्ध हो, अर्थात् इनकी सब उत्तमताएँ पैतृक संस्कारों के रूप में मुझे प्राप्त हों। (अस्मिन् लोके) = इस संसार में (शतं समाः) = सौ वर्षपर्यन्त, अर्थात् पूर्ण जीवन में उनकी उत्तमताओं को मैं धारण करनेवाला बनूँ।

    भावार्थ - भावार्थ- मुझे उत्तम पैतृक संस्कार प्राप्त हों। जीवित पितरों का जीवन मेरे जीवन के लिए आदर्श बने और मैं अपने जीवन को अधिकाधिक श्रीसम्पन्न बनाऊँ।

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