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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 39
    ऋषिः - वैखानस ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    पु॒नन्तु॑ मा देवज॒नाः पु॒नन्तु॒ मन॑सा॒ धियः॑। पु॒नन्तु॒ विश्वा॑ भू॒तानि॒ जात॑वेदः पुनी॒हि मा॑॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुनन्तु॑। मा॒। दे॒व॒ज॒ना इति॑ देवऽज॒नाः। पु॒नन्तु॑। मन॑सा। धियः॑। पु॒नन्तु॑। विश्वा॑। भू॒तानि॑। जात॑वेद॒ इति॒ जात॑ऽवेदः। पु॒नी॒हि। मा॒ ॥३९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः । पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनन्तु। मा। देवजना इति देवऽजनाः। पुनन्तु। मनसा। धियः। पुनन्तु। विश्वा। भूतानि। जातवेद इति जातऽवेदः। पुनीहि। मा॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 39
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    पदार्थ -
    १. हे प्रभो ! (मा) = मुझे (देवजना:) = देवजन-दिव्य वृत्तिवाले लोग (पुनन्तु) = पवित्र करें। गत मन्त्र में कहा था कि 'आरे बाधस्व दुच्छुनाम्' दुष्ट कुत्तों के समान मनुष्यों को हमसे दूर ही नष्ट कीजिए । प्रस्तुत मन्त्र में दुःसंग से विपरीत सत्सङ्ग की प्रार्थना से आरम्भ करते हैं कि देव वृत्तिवाले लोगों के सङ्ग से हमारा जीवन पवित्र बने । २. (मनसा) = विचारपूर्वक किये जानेवाले (धियः) = कर्म (पुनन्तु) हमारे जीवनों को पवित्र करें। वस्तुतः मनुष्य तो है ही वह जो (मत्वा कर्माणि सीव्यति) = विचारपूर्वक कर्म करता है। ऐसे कर्म ही हमारे जीवन को पवित्र करते हैं। अकर्मण्यता सब अपवित्रताओं का कारण है। अविचारपूर्वक किये गये कर्म भी हमारे दुःखों व मानस मालिन्य के कारण बन जाते हैं। ३. (विश्वा भूतानि) = 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' नामक सब भूत (पुनन्तु) = हमारे जीवन को पवित्र करें। इनसे सिद्ध होनेवाली पवित्रता मेरे शारीरिक स्वास्थ्य का कारण बनेगी । ४. (जातवेदः) = हे सर्वज्ञ प्रभो ! (मा पुनीहि) = आप मेरे जीवन को पवित्र कर दीजिए। हृदयस्थ प्रभु मुझे अपने ज्ञान से दीप्त करके पवित्र कर डालते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - १. देवजन मुझे पवित्र करें। २. विचारपूर्वक किये गये कर्म मुझे पवित्र करें ३. पृथिवी आदि भूत मुझे पवित्र करें ४. सर्वज्ञ प्रभु मुझे पवित्र करें।

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