यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 50
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - निचृत त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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अपि॒ तेषु॑ त्रि॒षु प॒देष्व॑स्मि॒ येषु॒ विश्वं॒ भुव॑नमा वि॒वेश॑।स॒द्यः पर्ये॑मि पृथि॒वीमु॒त द्यामेके॒नाङ्गे॑न दि॒वोऽअ॒स्य पृ॒ष्ठम्॥५०॥
स्वर सहित पद पाठअपि॑। तेषु॑। त्रि॒षु। प॒देषु॑। अ॒स्मि॒। येषु॑। विश्व॑म्। भुव॑नम्। आ॒वि॒वेशेत्या॑ऽवि॒वेश॑। स॒द्यः। परि॑। ए॒मि॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। एके॑न। अङ्गे॑न। दि॒वः। अ॒स्य। पृ॒ष्ठम् ॥५० ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपि तेषु त्रिषु पदेष्वस्मि येषु विश्वम्भुवनमाविवेश । सद्यः पर्येमि पृथिवीमुत द्यामेकेनाङ्गेन दिवोऽअस्य पृष्ठम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अपि। तेषु। त्रिषु। पदेषु। अस्मि। येषु। विश्वम्। भुवनम्। आविवेशेत्याऽविवेश। सद्यः। परि। एमि। पृथिवीम्। उत। द्याम्। एकेन। अङ्गेन। दिवः। अस्य। पृष्ठम्॥५०॥
विषय - NULL
पदार्थ -
१. (तेषु त्रिषु पदेषु अपि अस्मि) = उन तीनों लोकों में भी मैं हूँ, अर्थात् उन तीनों लोकों का मुझे खूब ज्ञान है (येषु विश्वं भुवनं आविवेश) = जिनमें यह सारा ब्रह्माण्ड समा जाता है। वस्तुतः एक-एक कदम में एक-एक लोक को व्याप्त करने से ही (विष्णु) = 'त्रि विक्रम' कहलाये हैं। २. मैं (सद्यः) = शीघ्र ही (पृथिवीम्) = इस पृथिवी को पर्येमि चारों ओर से व्याप्त करता हूँ। इस पृथिवी का ज्ञान प्राप्त करता हूँ। इस पृथिवी का ज्ञान ही ब्रह्मचर्यसूक्त में ज्ञानाग्नि की प्रथम समिधा कही गई है। 'पृथिवी' शब्द वेद में अन्तरिक्ष का भी वाचक है, अत: इस पृथिवी शब्द से अन्तरिक्ष का भी यहाँ ग्रहण करना है। मैं अन्तरिक्षलोक को भी जानता हूँ। यही ज्ञानाग्नि की द्वितीय समिधा है। ३. (उत) = और (द्याम्) = द्युलोक को भी (सद्यः) = शीघ्र ही (पर्येमि) = चारों ओर से व्याप्त करता हूँ। द्युलोक का भी मैं ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता हूँ। यही ज्ञान मेरी ज्ञानाग्नि की तृतीय समिधा बनता है। ४. (एकेन अङ्गेन) = और अद्वितीय [अनुपम] प्रथम कोटि के ज्ञान से [ अगि गतौ ] (अस्य दिवः) = इस द्युलोक के (पृष्ठम्) = आधारभूत ब्रह्मलोक को जानता हूँ। अथवा पुरुषसूक्त के इन शब्दों के अनुसार कि 'वह प्रभु पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त करके इससे भी ऊपर उठे हुए हैं तथा यह सारा ब्रह्माण्ड उस प्रभु के एक देश में है। 'पृष्ठम्' शब्द का अर्थ द्युलोक से ऊपर का भाग भी किया जा सकता है। मैं द्युलोक के जो परे है उसे भी जानता हूँ। इन तीनों लोकों को जानते हुए चतुर्थ ब्रह्मलोक को भी जानता हूँ। मेरा ज्ञान त्रिपात् न होकर चतुष्पात् है । इन लोकों से प्रभु का ज्ञान होता है, अतः वे लोक 'पद' [पद्यते] कहलाये हैं, इन तीनों पदों से ऊपर प्रभु स्वयं पद [पद्यते] हैं, ज्ञानगम्य हैं। उन्हीं को जानकर मनुष्य अत्यन्त शान्ति को प्राप्त करता है।
भावार्थ - भावार्थ - १. हम इस पृथिवीलोक का ज्ञान प्राप्त करें। पृथिवीस्थ देवों में हमें प्रभु की महिमा दिखेगी। इन देवों की मुखिया 'अग्नि' तो उस प्रभु की 'विभूति' ही है- 'वसूनां पावकोऽस्मि'। २. अन्तरिक्षस्थ देवों का ज्ञान प्राप्त करने पर उनमें प्रभु माहात्म्य दृष्टिगोचर होगा । अन्तरिक्ष का मुख्यदेव वायु तो प्रभु की स्पष्ट विभूति है- 'पवनः पवतामस्मि ' । ३. हमें द्युलोक के देवों का ज्ञान प्राप्त कर सूर्य में प्रभु माहात्म्य का चरम सौन्दर्य देखना है- 'ज्योतिषां रविरंशुमान्' । इस प्रकार तीनों पदों में प्रभु माहात्म्य को देखकर ही व्यक्ति देवसख = प्रभुरूप मित्रवाला [Friend of God] बनता है। ।
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