यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 54
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - समाधाता देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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द्यौरा॑सीत् पू॒र्वचि॑त्ति॒रश्व॑ऽआसीद् बृ॒हद्वयः॑।अवि॑रासीत् पिलिप्पि॒ला रात्रि॑रासीत् पिशङ्गि॒ला॥५४॥
स्वर सहित पद पाठद्यौः। आ॒सी॒त्। पू॒र्वचि॑त्ति॒रिति॑ पू॒र्वऽचि॑त्तिः। अश्वः॑। आ॒सी॒त्। बृ॒हत्। वयः॑। अविः॑। आ॒सी॒त्। पि॒लि॒प्पि॒ला। रात्रिः॑। आ॒सी॒त्। पि॒श॒ङ्गि॒ला ॥५४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यौरासीत्पूर्वचित्तिरऽअश्वऽआसीद्बृहद्वयः । अविरासीत्पिलिप्पिला रात्रिरासीत्पिशङ्गिला ॥
स्वर रहित पद पाठ
द्यौः। आसीत्। पूर्वचित्तिरिति पूर्वऽचित्तिः। अश्वः। आसीत्। बृहत्। वयः। अविः। आसीत्। पिलिप्पिला। रात्रिः। आसीत्। पिशङ्गिला॥५४॥
विषय - पूर्वचित्तिः बृहद्वयः
पदार्थ -
१. इसी अध्याय के मन्त्र संख्या ११-१२ पर इनका विस्तृत अर्थ है। यहाँ ज्ञानचर्चा के प्रसंग में इनको पुनः उपस्थित करने का उद्देश्य यह है कि (का स्वित्) = भला (पूर्वचित्तिः) = सर्वप्रथम ध्यान देने योग्य वस्तु (आसीत्) = क्या है?' इस प्रश्न का यह उत्तर कि (“द्यौः") = मस्तिष्क ही (पूर्वचित्तिः) = सर्वप्रथम ध्यान देने की वस्तु आसीत् है'। हम यह कभी भूलें नहीं कि मस्तिष्क के विकास से ही तो हम गतमन्त्र में दिये गये उत्तर को देने की योग्यतावाले ब्रह्मा बन पाएँगे। २. (किं स्वित्) = भला (बृहद्) = वर्धनशील (वयः) = पक्षी [जीव] क्या है। इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अश्वः) = सदा कर्मों में व्याप्त रहनेवाला जीव ही (बृहद् वयः) = वर्धनशील पक्षी है। वेद में परमात्मा व आत्मा को 'द्वा सुपर्णा' = दो पक्षियों के रूप में स्मरण किया है। परमात्मा सदा बढ़े हुए हैं, जीव अल्प होने से सदा सन्मार्ग पर चलते हुए बढ़ा करता है। ३. तीसरा प्रश्न है (स्वित्) = भला (का) = कौन (पिलिप्पिला) = 'चिक्कण, आर्द्र व शोभना' भी है ? उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अविः) = आत्मरक्षण करनेवाला ही शरीर में पिलिप्पिला = स्वास्थ्य की स्निग्धतावाली, मन में दया की आर्द्रतावाली तथा मस्तिष्क में ज्ञान की शोभावाली श्री से युक्त होता है । ४. चौथा प्रश्न है (किं स्वित्) = भला का कौन (पिशङ्गिला आसीत्) = सब रूपों को निगीर्ण कर जानेवाली है ? उत्तर देते हैं कि (रात्रिः) = रात (पिशङ्गिला आसीत्) = रूपों को निगल जानेवाली है। रात को सब रूप समाप्त होकर कृष्ण-ही-कृष्ण दिखता है। प्रलयकाल को भी [तम आसीत् तमसा गूळहमग्रे] अन्धकारमय होने से तम व रात्रि कहते हैं। उस प्रलयकाल में भी ये रूप समाप्त हो जाते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम मस्तिष्क को ध्येय वसुओं में सबसे ऊपर रक्खें। सबसे अधिक हमें इसी का ध्यान करना है। कर्मों में सदा व्याप्त रहकर हम वर्धनशील हों। आधि-व्याधियों से अपने को बचाते हुए हम स्निग्ध शरीर. आर्द्र हृदय व शोभन मस्तिष्कवाले हों। हम इस बात को न भूलें कि हमारे जीवन में भी महानिद्रा की रात्रि आनी है, जिसमें ये सब भौतिक तड़क-भड़क [रूप] समाप्त हो जाएगी, अतः इसको इतना महत्त्व क्यों देना ?
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