यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 6
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सूर्यो देवता
छन्दः - विराडगायत्री
स्वरः - षड्जः
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यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा॥६॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति॑। अ॒स्य॒। काम्या॑। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। विप॑क्ष॒सेति॒ विऽप॑क्षसा। रथे॑। शोणा॑। धृ॒ष्णूऽइति॑ धृ॒ष्णू। नृ॒वाह॒सेति॑ नृ॒ऽवाह॑सा ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे । शोणा धृष्णू नृसाहसा ॥
स्वर रहित पद पाठ
युञ्जन्ति। अस्य। काम्या। हरीऽइति हरी। विपक्षसेति विऽपक्षसा। रथे। शोणा। धृष्णूऽइति धृष्णू। नृवाहसेति नृऽवाहसा॥६॥
विषय - रथ-योजन
पदार्थ -
१. ये उपासक लोग रथे शरीररूप रथ में हरी ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों को (युञ्जन्ति) = जोतते हैं। रथ में जुतकर ही ये घोड़े इसकी यात्रा को पूर्ण करवाने में सहायक होंगे। जो घोड़े सदा चरते ही रहते हैं उनकी क्या उपयोगिता ? इसी प्रकार जो इन्द्रियाश्व भोगों को ही भोगने में लगे हैं वे स्पष्ट ही व्यर्थ हैं। वे दस के दस जब रथ में जुते होते हैं तो हम 'दशरथ' बनते हैं। जब ये भोगने में लगते हैं और मुख बन जाते हैं तब हम 'दश-मुख' [रावण] हो जाते हैं। २. ये घोड़े कैसे हैं? [क] (अस्य काम्या) = इस रथस्वामी के काम [इच्छा] का सम्पादन करनेवाले हैं। इसे लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले हैं। [ख] (विपक्षसा) = [ पक्ष परिग्रहे] ये घोड़े विशिष्ट परिग्रहवाले हैं। एक ने उत्कृष्ट ज्ञान का ग्रहण किया है तो दूसरे ने विशिष्ट कर्म का परिग्रह किया है। [ग] (शोणा) = तेजस्विता के कारण रक्तवर्णवाले हैं। [घ] (धृष्णू) = तेजस्विता के कारण ही शत्रु का धर्षण करनेवाले हैं। [ङ] (नृवाहसा) = मनुष्यों को लक्ष्य स्थान पर पहुँचानेवाले हैं। वस्तुतः इन्द्रियाश्वों को मलिन न होने देना, इनको ठीक-ठाक रखना ही जीवन यात्रा को पूर्ण करने का प्रमुख साधन है।
भावार्थ - भावार्थ- हम इन्द्रियाश्वों को रथ में जोतें और जीवन-यात्रा को पूर्णकर प्रभु के पास पहुँचें।
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