अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 1
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - पथ्या बृहती
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इ॒दं जना॒ उप॑ श्रुत॒ नरा॒शंस॒ स्तवि॑ष्यते। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं च॑ कौरम॒ आ रु॒शमे॑षु दद्महे ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । जना॒: । उप॑ । श्रुत॒ । नरा॒शंस॒: । स्तवि॑ष्यते ॥ ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । नव॒तिम् । च॑ । कौरम॒ । आ । रु॒शमे॑षु । दद्महे ॥१२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं जना उप श्रुत नराशंस स्तविष्यते। षष्टिं सहस्रा नवतिं च कौरम आ रुशमेषु दद्महे ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । जना: । उप । श्रुत । नराशंस: । स्तविष्यते ॥ षष्टिम् । सहस्रा । नवतिम् । च । कौरम । आ । रुशमेषु । दद्महे ॥१२७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 1
विषय - षष्टि-सहस्त्रा-नवर्ति [च]
पदार्थ -
१. (जना:) = हे लोगो! (इदम् उपभुत) = इस बात को ध्यान से सुनो। (नराशंस:) = उन्नति-पथ पर चलनेवालों से शंसनीय वह प्रभु (स्तविष्यते) = हमसे स्तुत होगा। हम प्रभु का स्तवन करेंगे, आप सब प्रभु-स्तवन को सुनने का अनुग्रह करो। २. प्रभु-स्तवनपूर्वक (कौरमे) = [कु+रम्] इस पृथ्विी पर क्रीड़ा करनेवाले में-क्रीड़क की मनोवृत्ति से सब कार्यों को करनेवाले में तथा (रुशमेषु) = काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाले में हम (षष्टिं) = [ष-wise] अतिशयित बुद्धिमत्ता को (सहस्त्रा) = [स हस्]-आनन्दमयी मनोवृत्तियों को तथा (नवतिम्) = [नवते to go] क्रियाशीलता को (आदद्महे) = सब प्रकार से ग्रहण करते हैं। ३. वस्तुत: प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाला व्यक्ति 'कौरम व रुशम' बनता है। यह सब स्थितियों को क्रीडक की मनोवृत्ति से करता है तथा वासनाओं का संहार करता है। परिणामत: यह बुद्धिमत्ता [पष्टि] मनःप्रसाद [स-हला] तथा क्रियाशीलता को [नवति] प्राप्त करता है।
भावार्थ - प्रभु-स्तवन करते हुए हम क्रीडक की मनोवृत्तिवाले व वासनाओं का संहार करनेवाले बनें। ऐसी स्थिति में हम 'बुद्धि-प्रसाद व क्रियाशीलता' के द्वारा मस्तिष्क, हृदय व शरीर-तीनों का स्वास्थ्य प्राप्त करेंगे।
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