अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 10
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अ॒भीवस्वः॒ प्र जि॑हीते॒ यवः॑ प॒क्वः प॒थो बिल॑म्। जनः॒ स भ॒द्रमेध॑ति रा॒ष्ट्रे राज्ञः॑ परि॒क्षितः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भीवस्व॒: । प्र । जि॑हीते॒ । यव: । प॒क्व: । प॒थ॑: । बिल॑म् ॥ जन॒: । स: । भ॒द्रम् । एध॑ति॒ । रा॒ष्ट्रे । राज्ञ॑: । परि॒क्षित॑: ॥१२७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अभीवस्वः प्र जिहीते यवः पक्वः पथो बिलम्। जनः स भद्रमेधति राष्ट्रे राज्ञः परिक्षितः ॥
स्वर रहित पद पाठअभीवस्व: । प्र । जिहीते । यव: । पक्व: । पथ: । बिलम् ॥ जन: । स: । भद्रम् । एधति । राष्ट्रे । राज्ञ: । परिक्षित: ॥१२७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 10
विषय - १. (परिक्षित:) = चारों ओर गति व निवासवाले उस सर्वव्यापक (राज्ञः) = शासक प्रभु के (राष्ट्रे) = राष्ट्र में, अर्थात् जहाँ प्रभु-स्तवन उत्तमता से चलता है उस राष्ट्र में (सः जनः) = वह स्तोता मनुष्य (भद्रं एधति) = मंगल व कल्याण के साथ वृद्धि को प्राप्त होता है। यह स्तोता मार्ग से न भटकता है और न ही अकल्याण का भागी होता है। २. इस राष्ट्र में (अभीवस्व:) = शरीर व मन दोनों के उत्तम निवास का साधनभूत-दोनों को उत्तम बनानेवाला (पक्वः यवः) = परिपक्व जौ (पथ:) = माग से (बिलम् प्रजिहीत) = हमारा अनाज की खत्तियों की और-अन्ना को भर रखने के स्थानों की ओर (प्रजिहीते) = गति करता है, अर्थात् ये स्तोता उत्तम, न्याय्यमार्ग से यव आदि सात्त्विक भोज्यपदार्थों का घरों में संचय करते हैं।
पदार्थ -
भावार्थ-प्रभु के स्तोता लोग सुख व कल्याण के साथ फूलते-फलते हैं। ये न्याय्यमार्गों से यव [जौ] आदि सात्विक भोजनों का ही संग्रह करते हैं।