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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 11
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    इन्द्रः॑ का॒रुम॑बूबुध॒दुत्ति॑ष्ठ॒ वि च॑रा॒ जन॑म्। ममेदु॒ग्रस्य॒ चर्कृ॑धि॒ सर्व॒ इत्ते॑ पृणाद॒रिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । का॒रुम् । अ॑बूबुध॒त् । उत्ति॑ष्ठ । वि । चर॒ । जन॑म् ॥ मम । इत् । उ॒ग्रस्य॑ । चर्कृ॑धि॒ । सर्व॒: । इत् । ते॑ । पृ॒णात् । अ॒रि: ॥१२७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः कारुमबूबुधदुत्तिष्ठ वि चरा जनम्। ममेदुग्रस्य चर्कृधि सर्व इत्ते पृणादरिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । कारुम् । अबूबुधत् । उत्तिष्ठ । वि । चर । जनम् ॥ मम । इत् । उग्रस्य । चर्कृधि । सर्व: । इत् । ते । पृणात् । अरि: ॥१२७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १. (इन्द्र:) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाला प्रभु (कारूम्) = क्रियाओं को कुशलता से करनेवाले पुरुष को (अबूबुधत्) = बोधयुक्त करता है। आलसी को ज्ञान प्राप्त नहीं होता। प्रभु इस कार को यह बोध देते हैं कि (उत्तिष्ठ) = उठ, आलस्य को छोड़ और (जनम् विचर) = लोगों में विचरण कर। लोगों से तू सम्पर्क स्थापित कर। उनके सुख-दुःख में सहानुभूति दर्शाता हुआ उनका सहायक बन। २. दूसरी बात यह है कि (उग्रस्य मम इत्) = शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले तेजस्वी मेरी ही (चर्कृधि) = स्तुति करनेवाला बन। तू इसप्रकार अपने जीवन को सुन्दर बना कि (सर्व:) = सब (अरि:) = [a religious or pious man] धार्मिक लोग (इत्) = निश्चय से (ते पुणात्) = तुझसे प्रसन्न हों [पृणाति delight, please]। तेरे सुन्दर जीवन को देखकर उन्हें प्रसन्नता का अनुभव हो।

    भावार्थ - क्रियाशील व्यक्ति को प्रभु बोध देते हैं-[१]त् लोगों के साथ मिलकर चल [२] प्रभु का स्तवन करनेवाला बन और [३] इसप्रकार जीवन को सुन्दर बना कि सब धार्मिक लोग तुझे देखकर प्रसन्न हों।

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