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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 6
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - भुरिगुष्णिक् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    प्र रे॑भ॒ धीं भ॑रस्व गो॒विदं॑ वसु॒विद॑म्। दे॑व॒त्रेमां॒ वाचं॑ श्रीणी॒हीषु॒र्नावी॑र॒स्तार॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । रे॑भ॒ । भ॑रस्व । गो॒विद॑म् । वसु॒विद॑म् ॥ दे॒व॒ऽत्रा । इमाम् । वाच॑म् । त्रीणी॒हि । इषु॒: । न । अर्वी॑: । अ॒स्तार॑म् ॥१२७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र रेभ धीं भरस्व गोविदं वसुविदम्। देवत्रेमां वाचं श्रीणीहीषुर्नावीरस्तारम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । रेभ । भरस्व । गोविदम् । वसुविदम् ॥ देवऽत्रा । इमाम् । वाचम् । त्रीणीहि । इषु: । न । अर्वी: । अस्तारम् ॥१२७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. हे (रेभ) = स्तोतः! (गोविदम्) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाली तथा (वसुविदम्) = सबके अन्दर बसनेवाले व सबको अपने अन्दर बसानेवाले प्रभु को प्राप्त करानेवाली (धीम्) = बुद्धि को (प्रभरस्व) = अपने में धारण कर। स्तवन से ही यह बुद्धि प्राप्त होती है। २. (देवत्रा) = देवों में स्थित होकर (इमां वाचम्) = इस ज्ञान की वाणी को (श्रीणीहि) = अपने में परिपक्व कर । ज्ञानी गुरुओं के चरणों में बैठकर इस ज्ञान को तू इसप्रकार परिपक्व कर (न) = जैसेकि (अवी:इषु:) = रक्षक बाण (अस्तारम्) = अस्त्रों को फेंकनेवाले योद्धा को परिपक्व करता है। हाथ में अस्त्र होने पर योद्धा घबराता नहीं। अस्त्रों से सुसज्जित योद्धा दृढ मन से युद्ध करता है, इसी प्रकार उत्तम आचार्यों को पाकर शिष्य अपने में ज्ञान का ठीकरूप से परिपाक कर पाता है।

    भावार्थ - स्तवन से वह बुद्धि प्राप्त होती है जोकि ज्ञान को प्राप्त कराती हुई प्रभु-प्राप्ति का साधन बनती है। यह स्तोता ज्ञानी आचार्यों के चरणों में ज्ञान का परिपाक करता है और इसप्रकार जीवन-संग्राम में विजयी बनता है जैसेकि अस्त्रों से सुसज्जित योद्धा युद्ध में।

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