अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 5
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
प्र रे॒भासो॑ मनी॒षा वृषा॒ गाव॑ इवेरते। अ॑मोत॒पुत्र॑का ए॒षाम॒मोत॑ गा॒ इवा॑सते ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । रे॒भास॑: । मनी॒षा: । वृषा॒: । गाव॑:ऽइव । ईरते ॥ अ॒मो॒त॒ । पु॒त्र॑का:। ए॒षाम् । अ॒मोत॑ । गा॒:ऽइव । आ॑सते ॥१२७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र रेभासो मनीषा वृषा गाव इवेरते। अमोतपुत्रका एषाममोत गा इवासते ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । रेभास: । मनीषा: । वृषा: । गाव:ऽइव । ईरते ॥ अमोत । पुत्रका:। एषाम् । अमोत । गा:ऽइव । आसते ॥१२७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 5
विषय - स्तुति, सन्तान व गौएँ
पदार्थ -
१. (रेभास:) = स्तोता लोग (मनीषा) = मननपूर्वक की गई स्तुतियों को [Hymn, praise] इसप्रकार (प्र ईरते)-प्रकर्षेण गतिमय करते हैं, (इव) = जैसे वे अपने घरों में (वृषा: गाव:) = दुग्ध का वर्षण करनेवाली-खूब दूध देनेवाली गौवों को प्रेरित करते हैं। ये प्रभु-भक्त इन गोदुग्धों के सेवन से ही सात्त्विकवृत्तिवाले बनकर प्रभु-भजन करनेवाले होते हैं। २. (एषाम्) = इन स्तोताओं के (अमा) = घर में (उत पत्रका:) = निश्चय से प्रिय सन्तान (आसते) = आसीन होते हैं, उसी प्रकार (इव) = जैसेकि (अमा) = इनके घरों में (उत) = निश्चय से (गा:) = गौएँ आसीन होती हैं। प्रभु-भक्तों के गृह प्रिय सन्तानों व गौओं से युक्त होते हैं।
भावार्थ - प्रभुभक्तों के गृहों में जिसप्रकार प्रभु का उपासन चलता है, उसी प्रकार वहाँ प्रिय सन्तानों व गौओं की स्थिति होती है।
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