अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 12
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इ॒ह गावः॒ प्र जा॑यध्वमि॒हाश्वा इ॒ह पूरु॑षाः। इ॒हो स॒हस्र॑दक्षि॒णोपि॑ पू॒षा नि षी॑दति ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । गाव॒: । प्रजा॑यध्वम् । इ॒ह । अश्वा: । इ॒ह । पूरु॑षा: ॥ इ॒हो । स॒हस्र॑दक्षि॒ण: । अपि॑ । पू॒षा । नि । सी॑दति ॥१२७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
इह गावः प्र जायध्वमिहाश्वा इह पूरुषाः। इहो सहस्रदक्षिणोपि पूषा नि षीदति ॥
स्वर रहित पद पाठइह । गाव: । प्रजायध्वम् । इह । अश्वा: । इह । पूरुषा: ॥ इहो । सहस्रदक्षिण: । अपि । पूषा । नि । सीदति ॥१२७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 12
विषय - प्रभु-पूजन व उत्तम घर का निर्माण
पदार्थ -
१. जहाँ मनुष्य गतमन्त्र के अनुसार प्रभु के बोध को सुनता है, (इह) = वहाँ इस घर में (गाव: प्रजायध्वम्) = हे गौओ! तुम खूब फूलो-फलो। (इह) = इस घर में (अश्वा:) = हे घोड़ो! तुम फूलो-फलो और (इह) = यहाँ (पूरुषा:) = पुरुष फूलें-फलें। २. (इह उ) = इस घर में निश्चय से (सहस्त्रदक्षिण:) = हजारों का दान देनेवाला (पूषा) = सबका पोषण करनेवाला गृहपति (अपि) = भी (निषीदति) = नम्रतापूर्वक आसीन होता है।
भावार्थ - प्रभु-पूजनवाले गृह में 'गौएँ, घोडे, पुरुष' सभी फूलते-फलते हैं। इस घर का गृहपति हजारों का दान देनेवाला व सबका पोषण करनेवाला होता है। यह नम्र होता है।
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