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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 9
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    क॑त॒रत्त॒ आ ह॑राणि॒ दधि॒ मन्थां॒ परि॒ श्रुत॑म्। जा॒याः पतिं॒ वि पृ॑च्छति रा॒ष्ट्रे राज्ञः॑ परि॒क्षितः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒त॒रत् । ते॒ । आ । ह॑राणि॒ । दधि॒ । मन्था॑म‌् । परि॒ । श्रु॒त॑म् ॥ जा॒या: । पति॒म् । वि । पृ॑च्छति । रा॒ष्ट्रे । राज्ञ॑: । परि॒क्षित॑: ॥१२७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कतरत्त आ हराणि दधि मन्थां परि श्रुतम्। जायाः पतिं वि पृच्छति राष्ट्रे राज्ञः परिक्षितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कतरत् । ते । आ । हराणि । दधि । मन्थाम‌् । परि । श्रुतम् ॥ जाया: । पतिम् । वि । पृच्छति । राष्ट्रे । राज्ञ: । परिक्षित: ॥१२७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    १. (परिक्षितः) = चारों ओर निवास व गति करनेवाले (राज्ञः) = संसार के शासक [इन्द्रो विश्वस्य राजति] प्रभु के राष्ट्र में, अर्थात् जिस राष्ट्र में सब घरों में प्रभु-स्तवन होता है वहाँ (जाया) = पत्नी (पतिं विपृच्छति) = पति से पूछती है कि (दधि मन्थां परिश्रुतम्) = दही, मठा व मक्खन में से (कतरत्) = कौन-सी वस्तु को (ते) = आपके लिए (आहराणि) = प्राप्त कराऊँ? २. प्रभु-स्तवनवाले राष्ट्र में [दूध] दही-मक्खन-मठा आदि सात्त्विक भोजनों का ही प्रयोग होता है। वहाँ मद्य, मांस आदि के सेवन की रुचि नहीं पनपती। मद्य आदि का सेवन मनुष्य को प्रभु-स्तवन से दूर ले जाता है।

    भावार्थ - प्रभु-स्तवन के साथ मनुष्य सात्विक भोजनों की ही वृत्तिवाला बना रहता है। राजस् व तामस भोजन हमें प्राकृतिक भोगों में फंसाकर प्रभु-स्तवन से दूर कर देते हैं।

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