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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 3
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    ए॒ष इ॒षाय॑ मामहे श॒तं नि॒ष्कान्दश॒ स्रजः॑। त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ष:। इ॒षाय॑ । मामहे । श॒तम् । नि॒ष्कान् । दश॒ । स्रज॑: ॥ त्रीणि॑ । श॒तानि॑ । अर्व॑तान् । स॒हस्रा॒ । दश॒ । गोना॑म् ॥१२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष इषाय मामहे शतं निष्कान्दश स्रजः। त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एष:। इषाय । मामहे । शतम् । निष्कान् । दश । स्रज: ॥ त्रीणि । शतानि । अर्वतान् । सहस्रा । दश । गोनाम् ॥१२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (एषः) = यह स्तोता (इषाय) = प्रभु-प्रेरणा की प्राप्ति के लिए (मामहे) = खूब ही प्रभु-पूजन करता है। प्रभु-पूजन करता हुआ यह स्तोता अन्त:स्थित प्रभु की प्रेरणा को सुनता है और प्रभु से दिये हुए (शतं निष्कान्) = सैकड़ों कण्ठ की भूषणभूत ज्ञानमालाओं को आदृत करता है। प्रभु से दिये गये ये ज्ञान इस स्तोता के (निष्क) = [neckless] कण्ठहार-बनते हैं। प्रभु-प्रदत्त (दश स्त्रजः) = [सृजन्ति] ज्ञान व कर्मों का उत्पादन [सृष्टि] करनेवाली इन्द्रियों को आदर देता है। इन इन्द्रियों का ग़लत प्रयोग नहीं करता। २. यह स्तोता (शतानि) = शतवर्षपर्यन्त चलनेवाले (अर्वताम् त्रीणि) = वासनाओं के संहार के तीन को-कामसंहार, क्रोधसंहार व लोभसंहार को आवृत्त करता है। प्रभु-स्तवन के द्वारा यह आजीवन 'काम, क्रोध, लोभ' का संहार करनेवाला होता है। वासना-संहार के द्वारा (गोनाम्) = ज्ञान की वाणियों के (सहस्त्रा) = [सहस्] आनन्द को प्राप्त करानेवाले प्रभु दश-धर्म के दश लक्षणों का ज्ञान प्राप्त कराते हैं और यह स्तोता उनको आदत करता है।

    भावार्थ - प्रभु-स्तवन करते हुए हम प्रभु की प्रेरणा को प्राप्त करेंगे। प्रभु हमें कण्ठों के आभूषणभूत शतश: ज्ञानों को, ज्ञानों व कर्मों का सर्जन करनेवाली दस इन्द्रियों को, शतवर्षपर्यन्त होनेवाले 'काम, क्रोध ब लोभ' के विविध संहार को तथा ज्ञान द्वारा होनेवाले आनन्दमय धर्म के दस लक्षणों को प्राप्त कराते हैं।

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