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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 2
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - पथ्या बृहती सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    उष्ट्रा॒ यस्य॑ प्रवा॒हणो॑ व॒धूम॑न्तो द्वि॒र्दश॑। व॒र्ष्मा रथ॑स्य॒ नि जि॑हीडते दि॒व ई॒षमा॑णा उप॒स्पृशः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उष्ट्रा॒: । यस्य॑ । प्रवा॒हण॑: । व॒धूम॑न्त: । द्वि॒र्दश॑ ॥ व॒र्ष्मा । रथ॑स्य॒ । नि । जि॑हीडते । दि॒व: । ई॒षमा॑णा: । उप॒स्पृश॑: ॥१२७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उष्ट्रा यस्य प्रवाहणो वधूमन्तो द्विर्दश। वर्ष्मा रथस्य नि जिहीडते दिव ईषमाणा उपस्पृशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उष्ट्रा: । यस्य । प्रवाहण: । वधूमन्त: । द्विर्दश ॥ वर्ष्मा । रथस्य । नि । जिहीडते । दिव: । ईषमाणा: । उपस्पृश: ॥१२७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में वर्णित स्तोता वह है (यस्व) = जिसके (प्रवाहण:) = [प्रवाहिण:] प्रकृष्ट गतिवाले (द्वि:दश) = दस प्राण तथा दस इन्द्रियाँ-ये बीस तत्त्व-(वधूमन्त:) = बुद्धिरूप प्रकृष्ट वधूवाले होते हुए (उष्ट्रा:) = सब दोषों का दहन करनेवाले होते हैं [उष दाहे] आत्मा पति है और बुद्धि उसकी पत्नी है। [आत्मा Adam है तो बुद्धि Eve]। जब इन्द्रियों व प्राणों के साथ इस उत्कृष्ट बुद्धि का सम्पर्क होता है तब ये प्राण व इन्द्रियाँ सब दोषों का दहन करनेवाली होती हैं। २. उस समय (रथस्य) = इस शरीर-रथ के (वष्र्मा) = [Surface of a mountain] शिखर [शिरःस्थ आँख, कान, नाक, मुख] (निजिहीडते) = इन सब प्राकृतिक भोगों का निरादर करते प्रतीत होते हैं। यह स्तोता प्राकृतिक भोगों में नहीं फँसता । इस स्तोता के शरीर-रथ के शिखर (दिवः ईषमाणा:) = प्रकाश की ओर गतिवाले होते हैं और अन्ततः (उपस्पृश:) = उस प्रभु को समीपता से स्पर्श करनेवाले होते है।

    भावार्थ - स्तोता की इन्द्रियाँ व प्राण प्रकृष्ट बुद्धि से युक्त होकर गतिशील होते हैं और सब दोषों का दहन करनेवाले होते हैं। अब यह स्तोता प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठता है और प्रकाश की ओर चलता हुआ प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है।

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