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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 131

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 1
    सूक्त - देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा छन्दः - प्राजापत्या गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    आमि॑नोनि॒ति भ॑द्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽअमि॑नोन् । इ॒ति । भ॑द्यते ॥१३१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आमिनोनिति भद्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽअमिनोन् । इति । भद्यते ॥१३१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्रों में वर्णित धन के प्रकरण में ही कहते हैं कि एक [श्वा-] प्रवृद्ध ऐश्वर्यवाले व्यक्ति के (आ अमिनोन्) = समन्तात् धन का प्रक्षेपण हुआ है [मि प्रक्षेपणे]-मेरे चारों ओर धन ही धन है (इति) = यह सोचकर (भद्यते) = सुखी होता है-आनन्द का अनुभव करता है। अपने को धन में लोटता हुआ [rolling in the wealth] देखकर प्रसन्न होता है। २. परन्तु यह प्रसन्नता स्थायी नहीं होती। यह व्यक्ति धन के मद में विषयों में फंस जाता है और (अनु) = इस भोगप्रवणता के कुछ बाद (तस्य अनु निभञ्जनम्) = उस भोगासक्त धनी पुरुष का भजन [आमर्दन-विनाश] हो जाता है।

    भावार्थ - जो व्यक्ति धनमदमत्त हुआ-हुआ भोगासक्त हो जाता है, वह थोड़े दिनों के विलास के बाद शीघ्र ही विनष्ट हो जाता है।

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