अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 18
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अदू॑हमि॒त्यां पूष॑कम् ॥
स्वर सहित पद पाठअदू॑हमि॒त्याम् । पूष॑कम् ॥१३१.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अदूहमित्यां पूषकम् ॥
स्वर रहित पद पाठअदूहमित्याम् । पूषकम् ॥१३१.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 18
विषय - पूषक-परस्वान्
पदार्थ -
१. (अ-दूह-मित्याम्) = [अ-दुहिर् Hurt अर्दने, मिति ज्ञान]-हिंसा न करनेवाला ज्ञान होने पर ही मनुष्य (पूषकम्) = उस सर्वपोषक प्रभु को पाता है। प्रभु पूषा हैं। साधक भी पूषा-न कि हिंसक बनकर ही प्रभु को प्राप्त करता है। २. [अति, ऋधू वृद्धौ, ऋच् स्तुतौ] (अत्यर्थर्च) = हे अतिशयेन प्रवद्ध स्तुतिवाले जीव! तू ही उस (परस्वत:) = [पृ पालनपुरणयो:, अस्। परस्+मत्] पालन व पूरण के कौवाले प्रभु को पानेवाला होता है। प्रभु का स्तवन करता हुआ भी 'परस्वान्'-पालनात्मक व पूरणात्मक कौवाला होता है। ३. इस (हस्तिन:) = प्रशस्त हाथोंवाले पुरुष के (दौव) = [दो:-भुजा] दोनों ही हाथ (दृती) = [दु विदारणे]-शत्रुओं का विदारण करनेवाले होते हैं। वस्तुत: प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न बनकर यह शत्रुओं का विदारण करता हुआ उत्तमता से पालन करनेवाला होता है।
भावार्थ - हमारा ज्ञान अहिंसक होगा तो ही हम पोषक प्रभु को प्राप्त करेंगे। प्रभु का स्तवन करनेवाला अवश्य पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मों को करता है। इसके दोनों हाथ शत्रुओं का विदारण करनेवाले होते हैं।
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